हम सत्य व्रत का पालन करें और असत्य को त्याग देंन! अपने आत्म स्वरूप को पहचानें!
हम सत्य व्रत का पालन करें और असत्य को त्याग देंन! अपने आत्म स्वरूप को पहचानें!
( अग्ने व्रतपते व्रतमचारिषं तदशकं तन्मेऽराधीदमहं यऽएवाऽस्मि सोऽस्मि ) यजु-२-२८
व्याख्या सदा सूर्य की भांति नियमित रूप से चलने का व्रत पिछले मन्त्र में लिया गया है! उसी व्रत को मैने यथा शक्ति पाला है! इस बात को प्रस्तुत मंत्र में कहते हैं कि- अग्ने व्रतपते व्रतंअचारिषम् हे अग्रणी प्रभु! हमारे व्रतों के रक्षक प्रभु! मैंने व्रत का आचरण किया है तत्अशकम् इस व्रत के पालन में मै समर्थ हुआ हूँ! तत् मे अराधि वह मेरा व्रत सिद्ध हुआ है! मै सत्य व्रत का पालन करुगा, मैं अनुभव करता हूँ कि मैंने सत्य व्रत का बहुत पालन किया है! उसे पूर्ण करने के लिए मैं आपकी ही कृपा से समर्थ हुआ हूँ और यह मेरा व्रत सिद्ध हुआ है! और इसका परिणाम है कि*
इदम् अहम् य: एव अस्मि स: अस्मि यह मैं जो भी हूँ, जो कुछ वास्तव में हूँ, मै वही हूँ, अतः मै अब भूल से इस पञ्च भौतिक शरीर में मैं बुद्धि नहीं करता! इससे ऊपर मै उठ गया हूँ! अब मै आत्मा को पहचानने लगें गया हूँ, मैं अपनी इन्द्रियों रुपी लगाम को वश में कर के योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:
इस चित्त निरोध से मैं सत्य स्वरूप में स्थित हो गया हूँ और जो वस्तुत: हूँ वही हो गया हूँ! मन्त्र का भाव है कि- मैं व्रत का पालन करूँ और अपने आत्म स्वरूप को पहचानूँ
सुमन भल्ला