हम प्रभु की उपासना से पवित्र, ज्ञानी, व दैवी सम्पत्ति वाले और दिव्य गुणों वाले बनेगें!
हम प्रभु की उपासना से पवित्र, ज्ञानी, व दैवी सम्पत्ति वाले और दिव्य गुणों वाले बनेगें!
(उपास्मै गायता नर: पवमानायेन्दवे! अभि देवां इयक्षते!) साम-१-६५१-१
नर: मनुष्यों को इस मन्त्र में नर: शब्द से स्मरण किया गया है! नृ नये धातु से बनकर यह शब्द अपने को आगे ले चलने की भावना को अभिव्यक्त कर रहा है! जिस मनुष्य में उन्नत होने की भावना दृढ़ मूल है वह नर है! उन्नत होने के लिए क्या करना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर मन्त्र इन शब्दों में देता है कि- अस्मै उपगायत इस प्रभु के लिए उसके समीप उपस्थित होकर गायन करो! यह प्रभु उपासना ही सब उन्नतियों का मूलमन्त्र है ! प्रभु उपासना करनी क्योंकि
१- पवमानाय वे पवित्र करने वाले है! २- इन्दवे परमैश्वर्य(ज्ञान) शाली है!
३- देवान् अभि इयक्षते
देवों से सम्पर्क कराने वाले है! पवमान यदि हम प्रभु की उपासना करेंगे तो वे प्रभु हमारे जीवनो को पवित्र बनायेंगे! प्रभु स्मरण हमारी विषयोत्कण्ठा का विध्वंस कर हमारे जीवनो को पंक लिप्त नहीं होने देते हैं! विषय का अर्थ विशेष रुप से बांध लेने वाला! इनका बंधन वस्तुत: बड़ा प्रबल है! ये दुरन्त है, इनका अर्थ करना कठिन है! ये अधिग्रह अतिशयेन ग्रहण करने वाले, पकड़ लेने वाले है! प्रभु स्मरण हमें इनकी पकड़ से बचाता है और इस प्रकार हम अ- सित अबद्ध (न बंधे हुए) बनते हैं!
इन्दु वे प्रभु ज्ञान रुप परमैश्वर्यवाले है उपासक को भी वे यह ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं! पवित्र हृदय में ज्ञान का प्रकाश क्यों न होगा? जिसे किसी भी इन्द्रिय विषय की तृष्णा ने
नहीं सताया वही विद्या का सच्चा अधिकारी होता है!
धन ऐश्वर्य है तो ज्ञान रुपी धन परमैश्वर्य है! हम परमेश्वर्य की उपासना करेंगे
तो वे प्रभु हमें पवित्र हृदय बना यह परमैश्वर्य प्राप्त करायेंगे! हमारे ज्ञान चक्षु खुल जायेंगे और हम तत्व के देखने वाले कश्यप बनेंगे! देवान् इस ज्ञान प्राप्ति का परिणाम हमारे अन्दर दैवी सम्पत्ति के विकास के रुप में होगा! उत्तरोत्तर दिव्य गुणों का सम्पर्क हममें बढता जायेगा! इन दिव्य गुणों को अपने अंदर लेने वाले हम इस मंत्र के ऋषि देवल होंगे!
मन्त्र का भाव है कि- हम प्रभु की उपासना करें और अपने हृदय को पवित्र बनाये हम ज्ञानी व दैवी सम्पत्ति वाले बनेंगे
सुमन भल्ला