लेख

मत का प्रयोग सोच समझ कर करें

((विनीत नारायण))
अभी आम चुनाव का प्रथम चरण ही पूरा हुआ है पर ऐसा नहीं लगता कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव जैसी कोई महत्त्वपूर्ण घटना घट रही है। चारों ओर एक अजीब-सा सन्नाटा पसरा हुआ है।
न तो गांव, और न ही कस्बों और शहरों में राजनैतिक दलों के होर्डिग्स और पोस्टर दिखाई दे रहे हैं, और न ही लाऊडस्पीकर पर वोट मांगने वालों का शोर सुनाई दे रहा है, चाय के ढाबों और पान की दुकानों पर अक्सर जमा होने वाली भीड़ भी खामोश है। जबकि पहले चुनावों में ये शहर के वो स्थान होते थे जहां से मतदाताओं की नब्ज पकडऩा आसान होता था।
आज मतदाता खामोश है। इसका क्या कारण हो सकता है। संभव है कि मतदाता तय कर चुके हैं कि उन्हें किसे वोट देना है पर अपने मन की बात को जुबान पर नहीं लाना चाहते। क्योंकि उन्हें इसके संभावित दुष्परिणामों का खतरा नजर आता है। यह हमारे लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। जनसंवाद के कई लाभ होते हैं। एक तो जनता की बात नेता तक पहुंचती है और दूसरा ऐसे संवादों से जनता जागरूक भी होती है। अलबत्ता, शासन में जो दल बैठा होता है, वो कभी नहीं चाहता कि उसकी नीतियों पर खुली चर्चा हो। दरअसल, उसे इससे माहौल बिगडऩे का खतरा रहता है। हर शासक यही चाहता है कि उसकी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर मतदाता के सामने पेश किया जाए। इंदिरा गांधी से नरेन्द्र मोदी तक कोई भी इस मानसिकता का अपवाद नहीं रहा है। आम तौर पर यह माना जाता था कि मीडिया सचेतक की भूमिका निभाएगा।
पर मीडिया को भी खरीदने और नियंत्रित करने पर हर राजनैतिक दल अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करता है जिससे उसका प्रचार होता रहे। पत्रकारिता में इस मानसिकता के जो अपवाद होते हैं वे यथासंभव निष्पक्ष रहने का प्रयास करते हैं ताकि परिस्थितियों और समस्याओं का सही मूल्यांकन हो सके। पर इनकी पहुंच बहुत सीमित होती है, जैसा आज हो रहा है। ऐसे में मतदाता तक सही सूचनाएं नहीं पहुंच पातीं। अधूरी जानकारी से जो निर्णय लिए जाते हैं, वो मतदाता, समाज और देश के हित में नहीं होते जिससे लोकतंत्र कमजोर होता है। सब मानते हैं कि किसी भी देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था ही सबसे अच्छी होती है क्योंकि इसमें समाज के हर वर्ग को अपनी सरकार चुनने का मौका मिलता है।
इस शासन प्रणाली के अंतर्गत आमजन को अपनी इच्छा से चुनाव में खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी को वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है। इस तरह चुने गए प्रतिनिधियों से विधायिका बनती है। एक अच्छा लोकतंत वह है, जिसमें राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। देश में यह शासन प्रणाली लोगों को सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिंक स्वतंत्रता प्रदान करती हैं। आज भारत में जो परिस्थिति है, उसमें जनता भ्रमित है। उसे अपनी बुनियादी समस्याओं की चिंता है पर उसके एक हिस्से के दिमाग में भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं ने यह बैठा दिया है कि नरेन्द्र मोदी अब तक के सबसे श्रेष्ठ और ईमानदार प्रधानमंत्री हैं, इसलिए वे तीसरी बार फिर जीतकर आएंगे, जबकि जमीनी हकीकत अभी अस्पष्ट है। क्षेत्रीय दलों के नेता काफी तेजी से अपने इलाके के मतदाताओं पर पकड़ बना रहे हैं। और उन सवालों को उठा रहे हैं, जिनसे देश का किसान, मजदूर और नौजवान चिंतित है। इसलिए उनके प्रति आम जनता की अपेक्षाएं बढ़ी हैं,  इसलिए ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं की रैलियों में भरी भीड़ आ रही है। जबकि भाजपा की रैलियों का रंग फीका है।
हालांकि चुनाव की हवा मतदान के 24 घंटे पहले भी पलट जाती है। इसलिए पहले से कुछ कहा नहीं जा सकता। 1970 के दशक में हुए जयप्रकाश आंदोलन के बाद से किसी भी राजनैतिक दल ने आम मतदाताओं को लोकतंत्र के इस महापर्व के लिए प्रशिक्षित नहीं किया है जबकि अगर ऐसा किया होता तो इन दलों को चुनाव के पहले मतदाताओं को खैरात बांटने और उनके सामने लंबे-चौड़े झूठे वादे करने की नौबत नहीं आती। हर दल का अपना एक समर्पित काडर होता जबकि आज काडर के नाम पर पैसा देकर कार्यकर्ता जुटाए जाते हैं, या वे लोग सक्रिय होते हैं, जिन्हें सत्ता मिलने के बाद सत्ता की दलाली करने के अवसरों की तलाश होती है। ऐसे किराये के कार्यकर्ताओं और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव ही दल बदल का मुख्य कारण है। इससे राजनेताओं की और उनके दलों की साख तेजी से गिरी है। एक दृष्टि से इसे लोकतंत्र के पतन का प्रमाण माना जा सकता है।
हालांकि दूसरी ओर, यह मानने वालों की भी कमी नहीं है कि इन सब आंधियों को झेलने के बावजूद भारत का लोकतंत्र मजबूत हुआ है। उसके करोड़ों आम मतदाताओं ने बार-बार राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया है, जब उन्होंने बिना शोर मचाए अपने मत के जोर पर कई बार सत्ता परिवर्तन किए हैं। मतदाता की राजनैतिक परिपक्वता का एक और प्रमाण यह भी है कि अब निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रभाव लगभग समाप्त हो चला है। 1951 के आम चुनावों में 6त्न निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे जबकि 2019 के चुनाव में इनकी संख्या घटकर मात्र 0.11त्न रह गई। स्पष्ट है कि मतदाता ऐसे उम्मीदवारों के हाथ मजबूत नहीं करना चाहता जो अल्पमत की सरकारों से मोटी रकम ऐंठ कर समर्थन देते हैं। मतदाताओं की अपेक्षा और विश्वास संगठित दलों और नेताओं के प्रति है। ऐसे में वे अपने कर्त्तव्य का सही से पालन करें। आम जन के रूप में हमें निराश नहीं होना है। हमारी हरसंभव कोशिश होनी चाहिए कि हमारे परिवार और समाज में राजनीति के प्रति समझ बढ़े और हर मतदाता अपने मत का प्रयोग सोच समझ कर करे। कोई नेता या दल मतदाता को भेड़-बकरी समझ कर हांकने की जुर्रत न करे।

Chauri Chaura Times

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button