वेद वाणी

हम वेद माता को अपनायें, जिससे हम उस दैदीप्यमान पिता- प्रभु का दर्शन कर सकें!

हम वेद माता को अपनायें, जिससे हम उस दैदीप्यमान पिता- प्रभु का दर्शन कर सकें!
(आयं गौ: पृश्निरक्रमीदसदन् मातरं पुर:! पितरं च प्रयन्त्स्व:!)
यजुर्वेद ३-६
व्याख्या गत मन्त्र में प्रजापति ने अपने जीवन को यज्ञमय बनाया! यज्ञादि उत्तम कर्मो में लगे रहने से यह सर्प गतिशील कहलाया! क्रियाशीलता के चमकने के कारण यह राज्ञी कहलाता है! इस प्रकार यह क्रियाशील व दैदीप्यमान जीवन वाला बनकर कं प्रति द्रवति उस आनन्द स्वरूप प्रभु की ओर बढ़ रहा है! अत: कद्रू: है! सर्पराज्ञी कद्रू: यह स्त्रीलिंग का प्रयोग इसलिए है कि जीव मानो पत्नी है, जो कि अपने प्रभु रुप पति का वरण करने के लिए सन्नद्ध है!
२- आयम् गौ:पृश्नि यह जीव गतिशील है निरंतर क्रिया में लगा हुआ है, ज्योतियों को यह स्पर्श करने वाला है! इसकी क्रिया के साथ ज्ञान जुड़ा हुआ है! वस्तुत: इसकी प्रत्येक क्रिया ज्ञान पूर्वक ही होती है! अक्रीमत् यह निरंतर उन्नति पथ पर पग रख रहा है! पुर: मातरम्असदत् सबसे पहले यह वेदमाता को
(स्तुता मया वरदा वेदमाता)
प्राप्त होता है! इसका सर्वप्रथम कार्य वेद ज्ञान को प्राप्त करना है! इसे यह सर्वप्रधान कर्तव्य समझता है! इसी से तो‌वहकण कण में प्रभु का दर्शन करता है! स्व: प्रयन् उस स्वयंप्रकाश पिता की ओर जाने के हेतु से वह ऐसा करता है! वस्तुत: प्रभु का दर्शन तभी होता है जब मनुष्य इस वेद ज्ञान से अपने
ब्रह्मवर्चस को बढाता है!
मन्त्र का भाव है कि- हम वेदमाता को स्वाध्याय से उस परमात्मा का दर्शन कर सकें

सुमन भल्ला

Chauri Chaura Times

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