अग्नि होत्र के लाभ निम्न हैं- (क) स्वास्थ्य (भू:) (ख) ज्ञान (भुव:) (ग) जितेन्द्रियता(स्व:)विशालता (द्यौ:इव पृथिवी इव) (घ) आद्य अन्न की प्राप्ति इन लाभों का ध्यान करते हुए अग्निहोत्र करना चाहिए!
अग्नि होत्र के लाभ निम्न हैं-
(क) स्वास्थ्य (भू:) (ख) ज्ञान
(भुव:) (ग) जितेन्द्रियता(स्व:)विशालता
(द्यौ:इव पृथिवी इव) (घ) आद्य अन्न की प्राप्ति इन लाभों का ध्यान करते हुए अग्निहोत्र करना चाहिए!
( भूर्भुव: स्वर् द्यौरिव भूमिका पृथिवीव वरिम्णा! तस्यास्ते पृथिवी देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे)
व्याख्या अग्निहोत्र के द्वारा वह खाने की वृत्ति से उपर उठता है! देवताओं से दिये गये अन्नों को देवों के लिए देकर ही वह खाता है!
वायु आदि देवों की शुद्धि से समय पर वृष्टि के द्वारा अन्नोत्पादन का कारण बनता है! सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि यज्ञियवृत्ति के परिणामस्वरूप उसका जीवन विलासमय नहीं बनता है और परिणामत: वह
भू: स्वस्थ रहता है! भू – होना बने रहना अस्वस्थ न हो जाना! स्वस्थ शरीर में उसका मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है भुव: वह ज्ञान प्राप्त करता है स्वस्थ व ज्ञानी बनकर वह स्व: स्वयं राजमान व जितेन्द्रिय बनता है! वह इन्द्रियों का दास नहीं
होता है! वस्तुत: यज्ञियवृत्ति के मूल में ही इन्द्रियों की दासता समाप्त हो जाती है! यह व्यक्ति विलास से ऊपर उठकर केवल अपने लिए न जीता हुआ सभी के लिए जीता है! यह भूम्ना बहुत्व के दृष्टिकोण से द्यौ:इव द्युलोक के समान हो जाता है! जैसे द्युलोक अनन्त नक्षत्रों को अपने में समाये हुए हैं उसी प्रकार यह भी सारे प्राणियों को अपनी मैं में समाविष्ट करने का प्रयत्न करता है! वह वरिम्णा विशालता के दृष्टिकोण से पृथिवी इव इस विस्तृत पृथिवी के समान होता है!
वसुधैव कुटुम्बकम् सभी वसुधा को अपना कुटुम्ब बना लेता है!
२- यह निश्चय करता है कि हे पृथिवी माता- भूमे! देवयजनि जो तू देवताओं के यज्ञ करने का स्थान है!
तस्या: ते पृष्ठे अग्निम् आदधे उस तेरे पृष्ठ पर मैं इस अग्नि को अग्नि कुण्ड में अवहित करता हूँ! जो अग्नि
अन्नादम् अन्न को खाने वाली है! इस अग्नि में उत्तमोत्तम हव्य अन्नों की आहूति देता हूँ! यह अग्नि उन्हें सूक्ष्मतम कणों में विभक्त करके सारे वायु मण्डल में फैला देता है! यह सूक्ष्म कण श्वास वायु के साथ कितने ही प्राणियों से अपने अंदर ग्रहण किये जाते हैं! अग्निहोत्र हमे अन्नाद्याय खाने योग्य अन्न प्रदान कराता है! हम अन्नाद्याय खाद्य अन्न के लिए ही मैं अग्नि का आधान करता हूँ और इस खाद्य अन्न की उत्पत्ति में कारण बनकर अपने प्रजापति नाम को चरितार्थ करता हूँ! मन्त्र का भाव है कि- अग्निहोत्र के लाभ का ध्यान करते हुए हमें नित्य प्रतिदिन अग्निहोत्र करना चाहिए और तत्पश्चात यज्ञ शेष को ग्रहण करना चाहिए
सुमन भल्ला