हम अपने जीवनो को दान पूर्वक अदन निर्मलता ज्ञान दीप्ति सत्सङ्ग रुचि व दिव्य गुणों से अलंकृत करके अपने को स्वर्ग प्राप्ति का अधिकारी बनायें!
हम अपने जीवनो को दान पूर्वक अदन निर्मलता ज्ञान दीप्ति सत्सङ्ग रुचि व दिव्य गुणों से अलंकृत करके अपने को स्वर्ग प्राप्ति का अधिकारी बनायें!
(*सं बर्हिरङ्क्ताहविषा घृतेन
समादित्यैर्वसुभि: सम्मरुद्भि:
समिन्द्रो विश्वदेवेभिरङ्क्तां दिव्यं नमो गर्छु यत् स्वाहा*!)
यजुर्वेद-२-२२
व्याख्या अपने जीवन में काम क्रोध लोभादि वासनाओ को नष्ट करने वाला व्यक्ति बर्हि: कहलाता है! यह बर्हि अपने जीवन को निव्यर्सन करने वाला वीर पुरुष हविषा हवि के द्वारा दान पूर्वक त्याग के द्वारा और घृतेन मलों के क्षरण व ज्ञान दीप्ति से सं अक्तम् अपने को सम्यकता अलंकृत करें!
जीवन के सच्चे आभूषण त्याग, निर्मलता व ज्ञान दीप्ति ही है! २- * आदित्यै
वसुभि:, मरुद्भि:सं अक्ताम्*
आदित्यों, वसुओं, व मरुतों के साथ सम्पर्क में आकर यह अपने जीवन को सुशोभित करे! सङ्ग का प्रभाव सर्वमान्य है! जैसों का साथ होता है वैसे ही मनुष्य बन जाता है! ज्ञान का निरंतर आदान करने वाले आदित्यों का सम्पर्क हमें ज्ञान की रुचि वाला बनायेगा! स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने वाले और जीवन में उत्तम निवास वाले वसुओं का सम्पर्क हमें स्वास्थ्य का ध्यान करने वाला बनायेगा! मरुत: प्राणा: प्राणों की साधना करने वाले अथवा मितराविण: कम बोलने वाले मरुतों का सम्पर्क हमें भी प्राण साधक और मितभाषी बनायेगा! ३- इन्द्र: इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव अर्थात जितेन्द्रिय पुरुष इस इन्द्रिय जय के द्वारा विश्वदेवेभि: इन दिव्य गुणों से सं अक्ताम् अपने जीवन को सुशोभित करे! *जितेद्रियता
साधन है और दिव्य गुण लाभ उसका साध्य है*
४- इस प्रकार पुरुष दिव्य नभ: गच्छातु स्वर्ग लोक के आधार भूत आकाश को प्राप्त हो! दिवो नाकस्य पृष्ठात् इस मन्त्र में द्युलोक स्वर्ग का पृष्ठ है! जब मनुष्य सब दिव्य गुणों से अलंकृत होता है, सब देवों का निवास स्थान बनता है, तब उसका अगला जन्म इह मत्यर्रलोक में न होकर स्वर्ग लोक में होता है! बस शर्त यह है कि
यत् स्वाहा यदि उसके जीवन में स्वार्थ त्याग हो! स्व का अथ है स्वार्थ त्याग दिव्यता प्राप्ति का प्रमुख कारण है! मन्त्र का भाव है कि- देव का मौलिक गुण ही देवो दानात् दान करना देना और स्वार्थ त्याग ही है
सुमन भल्ला