हे प्रभु! मेरा दृढ संकल्प ज्ञान बल से युक्त हो, जिससे प्रतिद्वन्दी एवं विरोधियों की पराजय ही हो!
हे प्रभु! मेरा दृढ संकल्प ज्ञान बल से युक्त हो, जिससे प्रतिद्वन्दी एवं विरोधियों की पराजय ही हो!
(अध्यक्षो वाजी मम कामं उग्र: कृणोति मह्यमसपत्नेव!
विश्व देवा मम नाथं भवन्तु सर्वे देवा हवमा मन्तर मे इसम!) अथर्व ९-२-७
शब्दार्थ मम उग्र:काम: वाजी अध्यक्ष:मह्यं सपत्नम् एव कृणोतु)मेरा प्रबल संकल्प ज्ञान बल से युक्त है और उपर से ठीक ठीक देखने वाला है! यह संकल्प मेरे लिए संसार को सर्वथा प्रतिद्वन्दी रहित कर देवे! (विश्वे देवा:मम् नाथं भवन्तु, सर्वे देवा:मे इमम् हवम् आयन्तु!सब देव मेरे सम्बन्ध में हो जाये और ये सब देव मेरी इस पुकार पर आ जाये!
व्याख्या मैं चाहता हूँ कि मुझमें जो आत्मा का संकल्प- बल निहित है उसके द्वारा मै सपत्नरहित हो जांऊ! मुझे जो सदा जो अपने प्रतिद्वन्दियों से लड़ने में लगा रहना पड़ता है, मेरी यह विषम अवस्था हट जाये! इसके बिना मै देवों के साथ अपना सहज संबन्ध स्थापित नहीं कर सकता! अतः मै संकल्प बल द्वारा अन्य कुछ सिद्ध नहीं करना चाहता, केवल अपने में देवों को स्थापित करना चाहता हूँ! इस प्रयोजन के लिए इससे पहले देवों के सब प्रतिद्वन्दियों को, काम, क्रोध आदि को निर्मूल कर देना चाहता हूँ! यदि यह हो जायेगा तो सब सिद्ध हो जायेगा! ज्ञान, सत्य प्रेम, यज्ञ, संयम, धैर्य आदि सब देव मुझमें बसने ही चाहिए! ये हमारी आत्मा के स्वाभाविक साथी है, परंतु इसके मुकाबले में इन्हें हटाकर मेरे हृदय में प्रभुत्व जमाने के लिए जो निरंतर अविद्या, राग द्वेष, काम क्रोध रहते हैं वे मेरे ही प्रतिद्वन्दी- सपत्न है, जिन्हें हटाये बिना मुझमें मेरे इन देवताओं का वास नहीं हो सकता है! अतः मै अपने प्रबल महा संकल्प द्वारा इन काम क्रोध अविद्या आदि सपत्नो को हटा दूंगा, लेकिन संकल्प का अर्थ इच्छा नहीं है, केवल प्रबल इच्छा होने से ये सपत्न नहीं हट सकते हैं! इसके लिए ज्ञान परमावश्यक है! बिना ज्ञान के इन्हें नहीं हटाया जा सकता है! यूंही दबाने से ये नहीं दबते है , बल्कि हटाया दबाने से ये और वेग से उठते है! इसके लिए मुझे आत्म संकल्प की आवश्यकता है, क्योंकि आत्म संकल्प वाजी होता है! ज्ञान बल से युक्त होता है! और यह अध्यक्ष होता है! यह मेरे मूर्धा में, ब्राह्मस्थान पर आत्मा के साथ स्थित रहता है और वहाँ से सब क्रियाओं की अध्यक्षता करता है! यही आत्मबल है और संकल्प भी यही है! इस आत्म सकंल्प द्वारा गहरे से गहरे काम क्रोध राग द्वेष आदि समाप्त हो जाते हैं अत:मै अपनी ज्ञान शक्ति को आत्मशक्ति को उपर से प्रेरित करता हूँ कि यह मेरे अमोघ बल से काम क्रोधाग्नि प्रतिद्वन्दियो को निवृत करके मुझे सपत्न
कर दे और तब सबंध मेरे आत्मदेव मुझसे सहज संबंध से जुड़े हुए हो जाये! असपत्न हो जाने पर मेरे संकल्प की इस पुकार से सब दिव्य भाव मुझमें आ जायें! मन्त्र का भाव है कि ये दिव्य गुण मुझमें ऐसे बस जाये, ऐसे सम्बद्ध हो जायें कि मै अपने संकल्प द्वारा जब जिस दिव्य भाव को, जिस देव को उद्बुद्ध करना चांहू उसी समय यह उद्बुद्ध हो जाये प्रकट हो जायें
सुमन भल्ला