शरीर का उचित रक्षण व लोकहित के लिए विनियोग ही प्रभु की सच्ची उपासना है
शरीर का उचित रक्षण व लोकहित के लिए विनियोग ही प्रभु की सच्ची उपासना है
(प्र होता जातो महान्नभोविन्नृषद्मा सीददपां विवर्ते!दधद्यो धायी सुते वयांसि यन्ता वसूनि विधते तनूपा:!)
साम ७७-५
प्रभु का प्यारा प्रभु की दी हुई सुमति को धारण करने वाला प्र – होता प्रकृष्ट होता लोक संरक्षण यज्ञ में अपने तन मन धन सभी को खूब आहुति देने वाला जात: बनता है! अपने इस लोक हित के कार्य में वह महान उदार हृदय वाला होता है! वह सभी का हित करता है! वह तो विश्वामित्र सभी का मित्र हैं
हृदय की संकीर्णता नष्ट करने के लिए ही वह नभोवित द्युलोक को, प्रकाशमय लोक को प्राप्त करने वाला बनता है! जैसे सूर्य अपना प्रकाश सभी को प्राप्त कराता है, इसी प्रकार वह प्रभु का उपासक भी सभी का हित करता है!
ज्ञानी बनकर वह संसार को मिथ्या समझता है, इस संसार से भाग नहीं खड़ा होता है! यह मनुष्यों में ही रहता है! अपाम् विवर्ते सीदत् कर्मों के चक्र में ही रहता है! अमुक कर्म से मैं अमुक का अप्रिय हो जाऊगा! लोकहित कार्यों में निरंतर लगा रहता हुआ य:दधत् सुते धायी यह व्यक्ति जगत को धारण करने के हेतु से इस उत्पन्न जगत में धारित होता है! जीता है! इसके जीवन का तथा जीवन में कर्मशील होने का उद्देश्य लोकहित ही होता है!
लोक- संग्रह के लिए शरीर को धारण करने वाला यह व्यक्ति वयांसि यन्ता अन्नों को नियमित करता है!
अर्थात शरीर धारण के उद्देश्य से तदनुकूल अन्नों को खाता है! और इस प्रकार वसूनि यन्ता शरीर में उत्तम रत्नों को स्थिर करता है! शरीर का रक्षक ही तनूपा: विधते प्रभु की उपासना करता है!, प्रभु का आदर करता है! स्वादवश अनावश्यक भोजन द्वारा शरीर को रोगी बनाना प्रभु का निरादर करना है!
यदि हम प्रभु के दिये शरीर का ठीक रक्षण व उपयोग करेंगे तो हम प्रभु के वत्स होंगे! और अपने इस कार्य से प्रभु को प्रसन्न करने वाले प्री बनेंगे और इस मन्त्र के वत्सप्री: ऋषि होंगे! मन्त्र का भाव है कि- हम लोकहित की भावना से प्रभु की सच्ची उपासना करें
सुमन भल्ला