मनुष्य को क्रमशः अग्नि, धेनु, यह्व,व भानु बनकर जीवन के चार पडावों को उत्तमता से तय करने के लिए यत्नशील होना चाहिए!
मनुष्य को क्रमशः अग्नि, धेनु, यह्व,व भानु बनकर जीवन के चार पडावों को उत्तमता से तय करने के लिए
यत्नशील होना चाहिए!
(अबोध्यग्नि:समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम्! यह्वाइव प्र वयामुज्जिहाना: प्र भानव: सस्त्रते नाकमच्छ!)
साम ७३-१
व्याख्या प्रथम आश्रम
मानव जीवन चार आश्रमों में विभक्त है! प्रथम आश्रम में आचार्य जो कि स्वयं अग्नि तुल्य ज्ञान से चमक रहा है! जो कि पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक के पदार्थों की ज्ञान रुप समिधाओं से ब्रह्मचारी की ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है! अतः समिधा अग्नि: अबोधि इन लोकों की ज्ञान के रुप में उद्बुद्ध किया जाता है!
२- गृहस्थ आश्रम यह उत्तम ब्रह्मचारी समावृत होकर जीवन यात्रा के दूसरे पडाव में प्रवेश करता है! यहाँ उसे प्रति- आय- तीम् – उषासम् प्रत्येक आने वाले उषाकाल में जनानाम् धेनुमिव मनुष्यों की गाय की भांति औरों का पालन करना है! जैसे अपने उत्तम दूध से गाय अपने बछड़े एवं अन्य बन्धुओं का पालन करती है, वैसे गृहस्थी भी अपनी संतान व अन्य तीनों आश्रमो का पालन करता है! इसी से गृहस्थ को ज्येष्ठाश्रमी कहा गया है!
यहाँ धेनु की समता गृहस्थ से दी गयी है, अपनी आवश्यक को कम करके औरों का पालन करना चाहिए!
३- वानप्रस्थ आश्रम गृहस्थ आश्रम महान तो है लेकिन मनुष्य को सदैव इसी में नहीं बने रहना है! वेद कहता है कि-यह्वा:इव वयाच्या प्र उज्जिहाना: बड़े पक्षी जैसे शाखा को छोड़कर आगे बढने वालें होतें है, उसी प्रकार मनुष्य को भी बड़ी अवस्था में पहुँचकर घर को छोड़कर आगे बढ़ना चाहिए!
उसे अब वनस्थ हो सदा स्वाध्याय में लगे रहना चाहिए!
४- चतुर्थ आश्रम सन्यास और फिर ज्ञान ज्योति से दीप्त भानु: सूर्य के समान ये सन्यासी नाकं अच्छ मोक्ष की ओर प्रसस्त्रे अग्रसर होते हैं! लोकहित के लिए सूर्य के समान अलिप्त भाव से अज्ञानांधकार को दूर करते हुए ये संयासी राग द्वेष आदि बन्धनों से मुक्त हो जातें हैं!
मन्त्र का भाव है कि- मनुष्य को चारों आश्रमो को बड़ी उत्तमता से तय करने के लिए यत्नशील होना चाहिए
सुमन भल्ला