मैं उस प्रभु (ग्वाले) की उत्तम गौ बनें प्रभु हमारे जीवन की रक्षा करें!
मैं उस प्रभु (ग्वाले) की उत्तम गौ बनें प्रभु हमारे जीवन की रक्षा करें!
(सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे! जुहूमसि द्यवि द्यवि!)
साम० १६०! ६
व्याख्या पवित्र मधुर इच्छाओं वाला मधुच्छन्दा: सभी के प्रति अत्यन्त स्नेह की भावना वाला वैश्वामित्र: इस मन्त्र का ऋषि है! यह कहता है कि हे प्रभु! ऊतये अपनी रक्षा के लिए द्यवि द्यवि प्रतिदिन जुहूमसि हम आपको पुकारते है! आप सुरूपकृत्नुमूतये उत्तम रुपों के निर्माता है! आपके स्मरण व अराधना से शरीर निरोगी, मन विशाल, और बुद्धि तीव्र होती है! शरीर मन व बुद्धि तीनों ही सुरूप हो जाते हैं! इन सुरुप अङ्ग – प्रत्यङ्गो को प्राप्त करके हम गोदुहे ग्वाले के रुपवाले आपके लिए सुदुघामिव उत्तम दुखी जाने वाली गौ के समान हो जाते हैं!
हम अपने मानव जीवन की रक्षा इसी प्रकार कर सकते हैं! कि शरीर मन और बुद्धि को सुंदर बनाये, परंतु इन्हें सुंदर बनाना प्रभु कृपा से ही सम्भव है! इन्हें सुंदर बनाकर मनुष्य सुदुघामिव सुंदर गौ के समान बन जाता है! जिस गौ का ग्वाला प्रभु ही होता है!
वेद में गौ मानव जीवन के साथ जोड़ दी गई है, वह हमारी माता बन गयी है! हमारी शारीरिक नीरोगता, मानस शीतलता व बुद्धि सूक्ष्मता का निर्माण करने वाली यह गौ ही है! इस गौ के दुग्ध से प्रभु ने हमारे शरीर मन, व बुद्धि को सुन्दर बनाने की व्यवस्था की है! करने वाला तो प्रभु ही होता है! मैं कौन? इस भावना को जाग्रत करने वाला ही सुदुघामिव गौ के समान बना रहता है! मन्त्र का भाव है कि प्रभु गोपाल है और हम उसकी गौएँ बने उसके प्रेम के पात्र बनें
सुमन भल्ला