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महर्षि पतंजलि ने योग की जटिलताओं को एक सूत्र में पिरोया जिसे हम पतंजलि योगसूत्र के नाम से जानते है

योग एक अति प्राचीन कला है जिसकी उत्पत्ति भारत में लगभग 6000 साल पहले हुई थी।योग शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के युज धातु से हुई है, जिसके दो अर्थ हैं – एक अर्थ है; जोड़ना और दूसरा अर्थ है – अनुशासन। ऐसा माना जाता है कि योग की उत्त्पति ब्रह्माण्ड में मानव जीवन की उत्पत्ति  के पूर्व हुई है।योग का जन्म धर्म एवं आस्था के जन्म से पूर्व हुआ है क्योंकि सर्वप्रथम योग गुरु भगवान शिव को माना जाता है। भगवान शिव को आदियोगी भी कहते हैं।कई हजार वर्ष पहले, हिमालय में कांति सरोवर झील के तटों पर आदि योगी ने अपने प्रबुद्ध ज्ञान को अपने प्रसिद्ध सप्?तऋषि को प्रदान किया था। सप्तऋषियों ने योग को पूरे विश्व में यथारूप में फैलाया। महर्षि अगस्त ने विशेष रूप से भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा कर इस महाद्वीप में योग संस्कृति की उत्पत्ति की आधारशिला रखी। सिंधु घाटी सभ्यता में कई मूर्तियां और जीवाश्मों के अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि योग सिंधु घाटी सभ्यता के लोगो के जीवनशैली का महत्वपूर्ण अंग था।हिन्दू ,बौद्ध और जैन समाज की प्राचीन परंपराओं , दर्शन शास्त्रों,वेदों, उपनिषद्, रामायण, महाभारत एवं पवित्र श्रीमद् भगवत गीता में योग का उल्लेख भारत में योग के प्राचीन काल से विद्यमान होने के प्रयाप्त साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।प्राचीन काल में योग करने के काफी कठिन नियम होते थे। सामान्यत: लोग गृहस्तजीवन त्याग कर वनो में कठिन योग क्रियाएं करते थे ।परंतु समय के  साथ ही योग की जटिलताओं को अनेक ऋषियों ने सामान्य करने का प्रयास किया है।परंतु महर्षि पतंजलि इस क्रम में एक अलग ही ख्याति अर्जित करने में सफल हुए क्योंकि महर्षि पतंजलि ने योग की जटिलताओं को एक सूत्र में पिरोया जिसे हम पतंजलि योगसूत्र के नाम से जानते है। वर्तमान काल में भी पतंजलि योगसूत्र से व्यक्ति सामान्यत: परिचित है। इस सूत्र को अष्टांग योग के नाम से भी जानते है जो कि यम,नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा,ध्यान , समाधि से मिलकर बना है।20 वीं सदी के अंतिम चरण से वर्तमान 21 वीं सदी  तक आसन एवं प्राणायाम मुख्य रूप से प्रचलन में हैं।
योग सूत्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है – ‘योगष्चित्तवृत्तिनिरोध:’  अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। चित्त का तात्पर्य, अन्त:करण से है।
वहीं,महर्षि याज्ञवल्क्य ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है- ‘संयोग योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनो।’ अर्थात जीवात्मा व परमात्मा के संयोग की अवस्था का नाम ही योग है
श्रीमद्भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कुछ इस प्रकार से परिभाषित किया है। योगस्थ: कुरू कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय:। सिद्ध्यसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। अर्थात् – हे धनंजय! तू आसक्ति त्यागकर समत्व भाव से कार्य कर। सिद्धि और असिद्धि में समता-बुद्धि से कार्य करना ही योग हैं।योग: कर्मसुकौशलम्।। अर्थात् कर्मो में कुशलता में कुशलता ही योग है
लिंग पुराण मे महर्षि व्यास ने कहा है कि -सर्वार्थ विषय प्राप्तिरात्मनो योग उच्यते। अर्थात् आत्मा को समस्त विषयो की प्राप्ति होना योग कहा जाता है।

सौजन्य से राष्ट्रीय न्यूज़ सर्विस

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