दानी की सदा प्रशंसा होती है उसे कभी दुख नही होता है सदा सुख और आनन्द होता है!
दानी की सदा प्रशंसा होती है उसे कभी दुख नही होता है सदा सुख और आनन्द होता है!
(न वा उ देवा:क्षुधमिद् वधं ददुरुताशितमुपगच्छन्ति मृत्यव:! उतो रयि:पृणतो नोपदस्यत्युतापृणन् मर्डितारं न विन्दते!ऋग्वेद१०-११७-१
शब्दार्थ देवा:न वै उ क्षुधं इत् वक़्त ददु:! उत आतिशतम् मृत्यव: उपगच्छन्ति! देवों ने न केवल भूख ही भूख के रुप में ही मौत दी है अपितु खाते पीते अमीर को भी नाना तरह से मौत आती है! उत उ पृणत:रयि: न उपदस्यति उत अपृणन् मर्डितारम् न विदन्ते
और देने वाले की धन सम्पत्ति नहीं क्षीण होती कम होती, अपितु जो दान न देने वाला है वह कभी भी अपने किसी सुख देने वाले को नहीं पाता नहीं प्राप्त करता है!
व्याख्या देवों ने मनुष्य को भूख क्या दी है, एक मौत दी है! दुनिया भूख बेकारी, गरीबी के मारे मरी जा रही है! इसलिए दूसरे को
खिलाकर खिलाना,गरीबों के पेट के सवाल को हल करना वास्तव में बडा़ भारी पुण्य है, बडा भारी कर्तव्य है! यह मरने से बचाना , पर इसका यह अर्थ नहीं कि भूख और गरीबी का ही मरने से कोई सम्बन्ध है! परमेश्वर ने केवल भूख रुप में ही मौत नहीं दी है, अपितु जो खूब खाते पीते अमीर लोग है उन पर भी उनकी मौत नाना प्रकार से पहुचती है! ऐसा अमीर से अमीर कौन मनुष्य है जो मरेगा नहीं? अतः दूसरे कहीं बेशक भूखे मरते हो, मेरा तो पेट भर रहा है इस प्रकार निश्चिन्त हो जाना मूर्खता है! जिसके पास है उसे जरूरत वाले को देना ही चाहिए! हम अकेले नहीं है, किन्तु हमारा जीवन सम्पूर्ण जन समाज के साथ जुड़ा हुआ है! यदि हम इतना समझते हो तो हमारा यह डर हट जाये कि दूसरे को दान देने से हमारा धन घट जायेगा! हम जिस पात्र को धन देते हैं वह हम ही है और उस दान से जो एक आवश्यकता पूरी होती है! उससे हमारी उन्नति होती है और अन्त में हमारा वैयक्तिक सुख और धन बढता है! हम यह प्रतिदिन देखते हैं कि जो जरूरत पर देता है उसे जरुरत पर उदारता पूर्वक मिलता भी है!
जो न देने वाले है वे समाज से कटे ही रहते हैं! उनका न कोई मित्र होता है और न कोई उन्हें सुख सहायता पहुचाने की आवश्यकता समझता है! मनुष्य धन से नहीं जीता! जिसके बिना वह रह नहीं सकता है वह तो ज्ञान बल, सुख सौहार्द, प्रेम आदि अत्यंत मूल्यवान वृत्तियाँ है! इसलिए यद्यपि इतना ठीक है कि संसार में भूखों के साथ पेट भरें भी मरते है और दान देने वाले और दान न देने वाले भी दोनों प्रकार के लोग भी मरते हैं! तो भी भेद यह है कि देने वाले को तो ये अमूल्य जीवनदायी सम्पत्तियां मिलती है, और उसका धन भी घटता नहीं है! परंतु न देने वाला पुरुष इनसे वंचित होकर अपना सुखहीन संकुचित मुर्दा सा जीवन व्यतीत करता है मन्त्र का भाव है कि- हमें दान देने की भावना सदा रखनी चाहिए जिससे हमें परमेश्वर द्वारा अमूल्य सम्पत्तियां मिलती है!