धार्मिक

अटूट आस्था का केंद्र है देव का त्रेतायुगीन सूर्य मंदिर

औरंगाबाद , बिहार में औरंगाबाद जिले के देव स्थित ऐतिहासिक त्रेतायुगीन सूर्य मंदिर देशी-विदेशी पर्यटकों,श्रद्घालुओं और छठव्रतियों की अटूट आस्था का केंद्र बना हुआ है।
भगवान भास्कर का त्रेतायुगीन सूर्य मंदिर सदियों से लोगों को मनोवांछित फल देने वाला पवित्र धर्मस्थल रहा है। यूं तो सालों भर देश के विभिन्न जगहों से लोग यहां पधारकर मनौतियां मांगने और सूर्यदेव द्बारा उनकी पूर्ति होने पर अर्घ्य देने आते हैं लेकिन लोगों का विश्वास है कि कार्तिक एवं चैती छठ व्रत के पुनीत अवसर पर सूर्य देव की साक्षात उपस्थिति की रोमांचक अनुभूति होती है।
देव स्थित भगवान भास्कर का विशाल सूर्य मंदिर अपने अप्रतिम सौंदर्य और शिल्प के कारण सदियों श्रद्घालुओं, वैज्ञानिकों, मूर्तिचोरों व तस्करों एवं आमजनों के लिए आकर्षण का केंद्र है। मंदिर की अभूतपूर्व स्थापत्य कला, शिल्प, कलात्मक भव्यता और धार्मिक महत्ता के कारण ही जनमानस में यह किंवदंति प्रसिद्घ है कि इसका निर्माण देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथों से किया है। काले और भूरे पत्थरों की अति सुंदर कृति जिसतरह उड़ीसा प्रदेश के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर का शिल्प है, ठीक उसी से मिलता-जुलता शिल्प देव के प्राचीन सूर्य मंदिर का भी है।
मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में उसके बाहर ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण एवं संस्कृत में अनुवादित एक श्लोक जड़ा है, जिसके अनुसार 12 लाख16 हजार वर्ष त्रेता युग के बीत जाने के बाद इलापुत्र पुरूरवा ऐल ने देव सूर्य मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया। शिलालेख से पता चलता है कि वर्ष2014 में इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल का एक लाख पचास हजार चौदह वर्ष पूर्ण हो चुके हैं।देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों- उदयाचल-प्रात: सूर्य, मयाचल- मय सूर्य और अस्ताचल -अस्त सूर्य के रूप में विद्यमान है। पूरे देश में देव का मंदिर ही एकमात्र ऐसा सूर्य मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है। करीब एक सौ फुट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अदभूत उदाहरण है। बिना सीमेंट अथवा चूना-गारा का प्रयोग किये आयताकार, वर्गाकार, अर्द्धवृत्ताकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार कई रूपों और आकारों में काटे गये पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक व विस्मयकारी है।
सूर्य पुराण से सर्वाधिक प्रचारित जनश्रुति के अनुसार ऐल एक राजा थे, जो किसी ऋषि के शापवश श्वेत कुष्ठ से पीडि़त थे। वे एक बार शिकार करने देव के वनप्रांत में पहुंचने के बाद राह भटक गये। राह भटकते भूखे-प्यासे राजा को एक छोटा सा सरोवर दिखायी पड़ा, जिसके किनारे वे पानी पीने गये और अंजुरी में भरकर पानी पिया। पानी पीने के क्रम में वे यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गये कि उनके शरीर के जिन जगहों पर पानी का स्पर्श हुआ उन
जगहों के श्वेत कुष्ठ के दाग जाते रहे। इससे अति प्रसन्न और आश्चर्यचकित राजा अपने वस्त्रों की परवाह नहीं करते हुए सरोवर के गंदे पानी में लेट गये और इससे उनका श्वेत कुष्ठ पूरी तरह जाता रहा। अपने शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचित राजा ऐल ने इसी वन प्रांतर में रात्रि विश्राम करने का निर्णय लिया और रात्रि में राजा को स्वप्न आया कि उसी सरोवर में भगवान भास्कर की प्रतिमा दबी पड़ी है। प्रतिमा को निकालकर वहीं मंदिर बनवाने और उसमें प्रतिष्ठित करने का निर्देश उन्हें स्वप्न में प्राप्त हुआ।
कहा जाता है कि राजा ऐल ने इसी निर्देश के मुताबिक सरोवर से दबी मूर्ति को निकालकर मंदिर में स्थापित कराने का काम किया और सूर्य कुण्ड का निर्माण कराया लेकिन मंदिर यथावत रहने के बावजूद उस मूर्ति का आज तक पता नहीं है। जो अभी वर्तमान मूर्ति है वह प्राचीन अवश्य है, लेकिन ऐसा लगता है मानो बाद में स्थापित की गई हो। मंदिर परिसर में जो मूर्तियां हैं, वे खंडित तथा जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं।
मंदिर निर्माण के संबंध में एक कहानी यह भी प्रचलित है कि इसका निर्माण एक ही रात में देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने अपने हाथों किया था और कहा जाता है कि इतना सुंदर मंदिर कोई साधरण शिल्पी बना ही नहीं सकता। इसके काले पत्थरों की नक्काशी अप्रतिम है और देश में जहां भी सूर्य मंदिर है, उनका मुंह पूरब की ओर है, लेकिन यही एक मंदिर है जो सूर्य मंदिर होते हुए भी उषाकालीन सूर्य की रश्मियों का अभिषेक नहीं कर पाता वरन अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें ही मंदिर का अभिषेक करती हैं।जनश्रुति है कि एक बार बर्बर लुटेरा काला पहाड़ मूर्ति्तयों और मंदिरों को तोड़ता हुआ यहां पहुंचा तो देव मंदिर के पुजारियों ने उससे काफी विनती की कि इस मंदिर को कृपया न तोड़े क्योंकि यहां के भगवान का बहुत बड़ा महात्म्य है। इस पर वह हंसा और बोला यदि सचमुच में तुम्हारे भगवान में कोई शक्ति है तो मैं रात भर का समय देता हूं और यदि इसका मुंह पूरब से पश्चिम हो जाये तो मैं इसे नहीं तोडूंगा। पुजारियों ने सिर झुकाकर इसे स्वीकार कर लिया और वे रातभर भगवान से प्रार्थना करते रहे। सबेरे उठते ही हर किसी ने देखा कि सचमुच मंदिर का मुंह पूरब से पश्चिम की ओर हो गया था और तब से इस मंदिर का मुंह पश्चिम की ओर ही है।
कहा जाता है कि एक बार एक चोर मंदिर में आठ मन (एक मन 40 किलोग्राम के बराबर) वजनी स्वर्ण कलश को चुराने आया। वह मंदिर के ऊपर चढ़ ही रहा था कि उसे कहीं से गडग़ड़ाहट की आवाज सुनायी दी और वह वहीं पत्थर बनकर चिपक गया। आज लोग अपने को सटे चोर की ओर उंगली दिखाकर बताते हैं।
इस संबंध में पूर्व सांसद, प्रख्यात साहित्यकार एवं देव के बगल के ही गांव भवानीपुर के रहने वाले स्व. शंकर दयाल सिंह का मानना था कि इसके दो कारण हो सकते हैं। उनमें एक यह कि कोई सोना चुराने नहीं आये, इसलिए यह किंवदंति प्रसिद्धि में आयी और दूसरी बात यह कि जिसे चोर की संज्ञा दी जाती है वह देखने पर बुद्घ की मूर्ति नजर आती है। वहीं, इस मत से भिन्न रूख रखने वालों में पंडित राहुल सांकृत्यायन प्रमुख हैं, जिनके अनुसार यह प्राचीनकाल में बुद्घ मंदिर था जिसे विधर्मियों से भयाक्रांत भक्तजनों ने इसे मिट्टी से पाट दिया था।
कहा जाता है कि सनातन धर्म के संरक्षक और संस्कारक शंकराचार्य जब इधर आये तो संशोधित और सुसंस्कृत कर यहां मूर्ति प्रतिष्ठित की। पुरातत्व से जुड़े डॉ. के. के. दत्त और पंडित विश्वनाथ शास्त्री ने भी इसकी अति प्राचीनता का प्रबल समर्थन किया है।

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