वेद वाणी

प्रभु के निकट जाने का प्रयास करें, परिणामतः वह तेज आयेगा जिसमें द्वेष आदि के सब दुर्व्यसन भस्म हो जायेंगे!

प्रभु के निकट जाने का प्रयास करें, परिणामतः वह तेज आयेगा जिसमें द्वेष आदि के सब दुर्व्यसन भस्म हो जायेंगे!
(देवस्य त्वा सवितु: प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्! आददेऽध्वरकृतं
देवेभ्यऽइन्द्रस्य बाहुरसि दक्षिण: सहस्त्रभृष्टि: शततेजा वायुरसि तिग्मतेजा
द्विषतो वध:!) यजु १-२४
व्याख्या (क) मै त्वा सवितु:देवस्य प्रसवे आददेऽध्वरकृतं तूझे प्रत्येक पदार्थ को उस प्रेरक दिव्य गुणों के पुञ्ज अनुज्ञा में ग्रहण करता हूँ! प्रभु की आज्ञा है कि- सीमित भोग करो, यथायोग्य सेवन कर!
(ख) * अश्विनो:बाहुभ्याम्* मैं प्रत्येक वस्तु को अपने पुरुषार्थ से कमाकर ग्रहण करता हूँ! किसी भी वस्तु को बिना मूल्य लेने की कामना नहीं करता हूँ!
(ग) पूष्णो:हस्ताभ्याम् पूषा के हाथों से अर्थात पोषण के दृष्टिकोण से ही मो किसी भी वस्तु का प्रयोग करता हूँ!
(घ)देवेभ्य: अध्वरकृतम् देवताओं के लिए यज्ञ में अर्पित की गई वस्तु के यज्ञ शेष को ही मै ग्रहण करता हूँ! तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्पेन एव स: जो देवताओं से दी गई वस्तुओं को बिना देवों को दिये खाता है, वह चोर ही है! सारे पदार्थ सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, जल, वायु देवों की कृपा से हमें प्राप्त है, इन देव प्रदत पदार्थों को यज्ञ द्वारा देवार्पण
करके ही बचे हुए को खाना चाहिए! त्यक्तयेन भुञ्जीथा: की भावना यही तो है! जो व्यक्ति उल्लेखनीय
बातों का ध्यान रखते हुए सांसारिक पदार्थों को स्वीकार करता है वह इन्द्रस्य दक्षिण: बाहु असि शक्तिशाली कर्मों को करने वाले प्रभु का दाहिना हाथ बनता है! अर्थात प्रभु उसे निमित्त बनाकर उत्तमोत्तम कार्य किया करते हैं, ये व्यक्ति महान कार्य को करते हुए दीखते है! हमें ये सामान्य पुरुष न लगकर महामानव प्रतीत होने लगते
३- सहस्त्रभृष्टि यह व्यक्ति कार्यों में उपस्थित होने वाले हजारों विघ्नों को नष्ट करने वाला होता है!
शततेजा: इसका जीवन सौ के सौ वर्ष तेजस्वी बना रहता है!भोग मार्ग को न अपनाने से कभी क्षीण शक्ति वाला नहीं होता है!
५- वायु:असि वह वायु की भांति निरंतर क्रियाशील है (वा गतिगन्धनयो) वह अपनी क्रियाशीलता के द्वारा सब बुराईयों का हिंसन करने वाला होता है!
६- तिग्मतेजा: यह तीव्र तेज का धारण करने वाला होता है, इस तेजस्विता के कारण ही सब विघ्न रुपी अंधकार को नष्ट करता हुआ आगे बढता जाता है इस तेजस्विता से ही वह ७- द्विषतो वध: शत्रु का वध करने वाला होता है! द्वेष रुपी शत्रु ही सर्व महान शत्रु है, इसका तेजस्विता के साथ एक स्थान पर रहना कभी नहीं होता है! * जहाँ तेजस्विता है वहाँ द्वेष नही,जैसे जहाँ प्रकाश है वहाँ अंधकार नहीं* इसलिए (शततेजा व तिग्मतेजा) यह द्वेष को अपने से दूर करने वाला होता है! मन्त्र का भाव है कि- प्रभु का दाहिना हाथ बनने का प्रयास करें जिससे हममें तेज आयेगा, और सभी द्वेष बुराईयां समाप्त होगी

सुमन भल्ला

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