यह संसार प्रभु की महिमा और उसके स्वरूप, यश का स्मरण कराता है! हमें एक पल भर भी उस प्रभु को विस्मृत नहीं करना चाहिए!
यह संसार प्रभु की महिमा और उसके स्वरूप, यश का स्मरण कराता है! हमें एक पल भर भी उस प्रभु को विस्मृत नहीं करना चाहिए!
(अस्य श्रवो नद्य: सप्त बिभ्रति द्यावाक्षामा पृथिवी दर्शतं वपु:! कस्मे सूर्याचन्द्रमसाभिचक्षे श्रद्धे कमिन्द्र चरणो वितर्तुरम्!)
ऋग्वेद – १-१०२-२
शब्दार्थ अस्य श्रव: सप्त नद्य: बिभ्रति, द्यावाक्षामा पृथिवी दर्शतम् वपु:बिभ्रति!
इस परमात्मा के यश को सात नदियाँ धारण कर रही है! द्यौ, पृथिवी, अंतरिक्ष देखने योग्य निर्माण सामर्थ्य शरीर को धारण कर रहे हैं! हे (इन्द्र सूर्यचन्द्रमसा कस्मे अभिचक्षे श्रद्धे कम् वितर्तुरम् चरत:!) इन्द्र! सूर्य और चन्द्रमा हमें दिखाने और तुझ पर श्रद्धा करने के लिए परस्पर विरुद्ध मार्ग पर चल रहें हैं!
व्याख्या अपने उद्गम- स्थान से निकल कर कल कल ध्वनि करती हुई नदियाँ प्रभु का ही यशोगान करती है! यदि उसका रुप देखना चाहते हो तो यह विशाल द्यौ, विस्तृत अंतरिक्ष और महती मही (पृथिवी) उसका शरीर है! जैसा कि अथर्ववेद में कहा है कि यस्य भूमि प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्! दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:!
भूमि जिसका पादतल और अंतरिक्ष जिसका उदर, द्यौ जिसका सिर, उस ब्रह्म को मेरा नमन है! सूर्य और प्रतिदिन नूतन प्रतीत होने वाला चन्द्रमा जिसकी आंख और अग्नि को जिसने मुख बनाया है, उस ब्रह्म को मेरा नमन! वायु जिसके प्राण अपान है, किरणें जिसकी आंख है दिशाओं को जिसने ज्ञान कराने वाले कान बनाया है उस परम ब्रह्म को मेरा नमन्!
रुपक अलंकार से संसार के पदार्थों को भगवान् के शरीर का निरुपण किया है! इस विशाल संसार को देखकर किस बुद्धिमान का प्रभु के आगे सिर नहीं झुकेगा! सूर्य, चन्द्रमा विपरीत दिशा में उत्पन्न होने पर भी प्राणियों के सुख का हेतु बनते हैं! यदि ये दोनों और द्यावापृथिवी प्रभु पर यदि श्रद्धा नहीं करा सकते, तो कौन करायेगा? यह अद्भुत संसार उस अपार महिमा का सार है!
भगवान् का यश बहुत बड़ा है उत्ते शतान्मघवन्नुच्च भूयस उत्सहस्त्राद्विरिचे कृष्टिषु श्रव:( ऋग्वेद १-१०२-७) प्रभो! प्रजाओं में तेरा यश सैकड़ों से बड़ा है, कार्य कर्ता की सूचना देता है, जैसी सुंदर रचना होगी, वैसी कर्ता की योग्यता समझी जायेगी! संसार के पदार्थों की रचना तो अद्भुत है, जो चक्कर में डाल देती है! पृथिवी के विषय में बडा से बड़ा वैज्ञानिक यह नहीं कहने का साहस करता है कि मैंने सब कुछ जान लिया है, उसी तरह जल और अग्नि के सूक्ष्म रहस्य को कोई बुद्धिजीवी और विद्वान भी नहीं जान सकता है! उसी तरह मानव तन इतना अद्भुत है कि इस शरीर के पूर्ण रहस्य को वैज्ञानिक नहींजआन पाये! उसी प्रकार संसार का प्रत्येक पदार्थ एक से एक बढकर विलक्षण और अद्भुत है, इसकी रचना कोई अद्भुत बुद्धि का धनी ही कर सकता है, इसकी तो मनुष्य कल्पना भी नहीं कर सकता है! यही पर बुद्धि कुण्ठित हो जाती है! मन्त्र का भाव है कि- संसार में प्रभु का यश, महानता अद्भुत है इसका पार कोई मनुष्य नहीं पा सकता है!
सुमन भल्ला