हम अभय व निरुद्वेग हों! हमारा यज्ञ विश्रान्त न हो हम आलसी न बनें! हम ज्ञान,कर्म, भक्ति तीनों के विस्तारक बनें!
हम अभय व निरुद्वेग हों! हमारा यज्ञ विश्रान्त न हो हम आलसी न बनें! हम ज्ञान,कर्म, भक्ति तीनों के विस्तारक बनें!
(मा भेर्मा संविक्थाऽअतमेरुर्यज्ञोऽतमेरुर्यजमानस्य प्रजा भूयात् त्रिताय त्वा द्विताय त्वैकताय त्वा!) यजु १-२३
व्याख्या वह व्यक्ति जिसका सविता देव के द्वारा ठीक परिपाक होता है, सदा निर्भय होता है! उसमें दैवी सम्पत्ति का विकास होता है!
जिसका आरम्भ अभयम् से होता है अतः कहते हैं कि मा भे: तू डर मत, वस्तुत: जो प्रभु का भय रखता है वह संसार में अभय होकर विचरता है! मा संविक्था: तू उद्वेग से कम्पित न हो, ठीक मार्ग पर चलने से कम्पित नहीं होता है! *यज्ञ: अतमेरु: कभी श्रान्त( थकने) होने वाला न हो, अर्थात मेरी यज्ञीय भावना सदा क्रियामय बनी रहे! ३- उस यजमानस्य
सृष्टि यज्ञ को रचने वाले प्रभु की प्रजा अतमेरु भूयात्
संतान उत्तम कर्मों को करने में थक न जाये, प्रभु के बनें रहने वाले व्यक्ति कभी भी थकते नही है, प्रकृति के उपासक थक जाते हैं! वह विलासी जीवन के कारण क्षीण शक्ति हो जाते हैं!
प्रभु कहते हैं कि मैं -त्वा त्रिताय तूझे ज्ञान, कर्म, भक्ति के विस्तार के लिए प्रेरित करता हूँ, क्योंकि ज्ञान पूर्वक कार्य करने को ही भक्ति कहते हैं! अत: द्विताय त्वा तूझे ज्ञान और कर्म का ही विस्तार करने के लिए कहता हूँ!
आवश्यक कर्मों की प्रेरणा का आधार ज्ञान ही है अत: एकताय त्वा मैं तूझे ज्ञान के विस्तार के लिए प्रेरणा देता हूँ! क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठ: ब्रह्म ज्ञानियो में क्रियावान ही श्रेष्ठ होता है! मन्त्र का भाव है कि- हम परिश्रम द्वारा कार्य करें, हम निरुद्वेग और आलसी न बनें, ज्ञान- कर्म और भक्ति के विस्तारक बनें कर्म को भक्ति मानकर क्रियावान बनें
सुमन भल्ला