मुझे अनासक्त व पवित्र बनानेवाली मेरी ज्ञान दीप्तियां मुझे प्रभु के समीप पहुँचाने वाली हों- ये मुझे प्रभु का प्रिय बनायें! लोक हित में प्रवृत्त होकर मै प्रजापति बनूँ
मुझे अनासक्त व पवित्र बनानेवाली मेरी ज्ञान दीप्तियां मुझे प्रभु के समीप पहुँचाने वाली हों- ये मुझे प्रभु का प्रिय बनायें! लोक हित में प्रवृत्त होकर मै प्रजापति बनूँ!
( उप त्वाग्ने हविष्मतीर्घृताचीर्यन्तु हर्यत!जुषस्व समिति मम ) यजु ३-४
व्याख्या हे अग्ने मेरी उन्नति के साधक प्रभु! हर्यत मेरी सब क्रियाओं के स्त्रोत व चाहने योग्य प्रभु!
मम समिध: त्वा उपयन्तु
मेरी ज्ञान दीप्तियां आपके समीप प्राप्त हों, ज्ञान मुझे निरंतर आपके समीप प्राप्त कराने वाला हो! मेरी ये ज्ञान दीप्तियां कैसी हो?
(१) हविष्मती: ये उत्तम हवि वाली है – त्याग पूर्वक अदन वाली है! ज्ञान का पहला परिणाम मेरे जीवन पर यह होता है कि मेरी अकेले खाने की वृत्ति प्राय: समाप्त हो जाती है! मैं औरों के साथ मिलकर खाता हूँ! मैं अपनी सम्पत्ति का पांचों यज्ञों में विनियोग करके यज्ञ शेष को खाने वाला बनता हूँ! यह यज्ञ शेष ही तो अमृत है- अत: मेरा भोजन अमृत सेवन हो जाता है!
२- घृताची: मल के क्षरण से युक्त है! ज्ञान का परिणाम मल को दूर करना है! ज्ञान पवित्र है! नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते एवं ज्ञान के मेरे जीवन में दो परिणाम होतें है! पवित्रता और त्याग !
हे प्रभो! मेरी इन ज्ञान दीप्तियों को जुषस्व आप प्रीति पूर्वक सेवन कीजिये- ये आपको प्रसन्न करने वाली हों! जैसे पिता पुत्र के ऊंचे ज्ञान से प्रसन्न होता है- उसके प्रथम स्थान में उत्तीर्ण
होने से प्रीति का अनुभव करता है, उसी प्रकार मेरा ज्ञान आपको प्रसन्न करें!
मेरा ज्ञान मेरे जीवन में पवित्रता और ज्ञान उत्पन्न करता है! पवित्र व यज्ञिय जीवन वाला बनकर मैं सब प्रजाओं के हित में प्रवृत्त होता हूँ और प्रस्तुत मंत्र का ऋषि प्रजापति बनता हूँ!
मन्त्र का भाव है कि- मै ज्ञान की दीप्तियां प्राप्त करप्रभु का प्रिय बनूँ
सुमन भल्ला