हम यज्ञशिष्ट तथा सौम्य भोजनों के द्वारा अपने में दिव्य गुणों की वृद्धि करें और लोकहित के कार्यों में व्यापृत होते हुए वेद वाणी का प्रसार करके समाजसेवी बनेंगे!
हम यज्ञशिष्ट तथा सौम्य भोजनों के द्वारा अपने में दिव्य गुणों की वृद्धि करें और लोकहित के कार्यों में व्यापृत होते हुए वेद वाणी का प्रसार करके समाजसेवी बनेंगे!
( अग्नेस्तनूरसि वाचो विसर्जनं देववीतये त्वा गृह्णामि बृहद् ग्रावासि वानस्पत्य: सऽइदं देवेभ्यो हवि:शमीष्व! हविषकृदेहि! ) यजु-१-१५
व्याख्या अदिति के सम्पर्क में रहकर अपने जीवन को सुंदर बनाने वाला व्यक्ति अपना ठीक परिपाक करके लोकहित के कार्यों में
प्रवृत होता है, इसे प्रभु निम्न रुप से प्रेरणा देते हैं!
१- अग्ने:तनू: असि तू अग्नि का विस्तारक है तूने अपने जीवन को पूर्ण स्वस्थ बना कर उत्साह से परिपूर्ण किया है! अग्नि उत्साह का प्रतीक है! आलसी को अनुष्णक: कहते हैं! प्रभु का सच्चा स्तोता शारीरिक स्वास्थ्य के कारण अग्नि की तरह चमकता है!
२- वाचो विसर्जनं तू मेरी इस वेद वाणी का सर्वत्र विचरता हुआ प्रचार करता है!
३- देववीतये त्वा गृह्णामि
दिव्य गुणों के उत्पन्न करने के लिए मै तूझे ग्रहण करता हूँ! ताकि तू यज्ञमय जीवन बना कर इस लोक में दिव्य गुणों का प्रचार करने वाला बन!
४- बृहद् ग्रावासि तू विशाल हृदय वाला वेद वाणी के उच्चारण करने वाला बन!
५- वानस्पत्य:स: देवेभ्य:शमीष्व तू वनस्पति का ही प्रयोग वाला बन, तू दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए इदं हवि शमीष्व इस हवि रुप भोजन को ही शांति देने वाला बना, अर्थात तेरा भोजन यज्ञ शेष रुप तो हो ही, साथ ही सौम्य हो जो तेरे स्वभाव को शांत बनाता हुआ तूझमें दिव्य गुणों की वृद्धि का कारण बने! सुशमि शमीष्व सुशमि उत्तम शांति देने वाला हो, हवि रुप भी हो!
७- हविषकृदेहि हवि रुप भोजन करने वाले जीव! तू मेरे समीप आ! प्रभु का सामीप्य उसे ही प्राप्त होता है, जो अपने जीवन को लोकहित के लिए अर्पित कर देता है! और इस लोक हित- परार्थ की वृत्ति को सिद्ध करने के लिए भोजन का हवि रुप होना आवश्यक है भोजन की पवित्रता से ही मन की पवित्रता होती है! मन्त्र का भाव है कि-हम यज्ञ शेष और सौम्य भोजन सात्विक भोजन के द्वारा दिव्य गुणों की वृद्धि कर लोकहित के कार्य करें
सुमन भल्ला