हम ऐसे कार्य करें कि हमारी वाणियां उस परमेश्वर के समीप पहुंचे और हमें उस परमपिता का सानिध्य प्राप्त हो!
हम ऐसे कार्य करें कि हमारी वाणियां उस परमेश्वर के समीप पहुंचे और हमें उस परमपिता का सानिध्य प्राप्त हो!
मंत्र :– (अदर्शि गातुवित्तमो यस्मिन् व्रतान्यादधु:!
उपो षु जातमार्यस्य वर्धनम् अग्निं नक्षन्त नो गिर:!)
ऋग्वेद ८! १०३! १
पदार्थ एवं अन्वय:–
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(गातुवित्तम: अदर्शि यस्मिन् व्रतानि आदधु:) मार्गों के सबसे बडे़ ज्ञाता अग्नि परमेश्वर दीख गया है, जिसमें हम अपने कर्मों को समर्पित करते हैं! (न: गिर: सुजात) हमारी वाणियां सम्यक् रुप से प्रादुर्भूत और (आर्यस्य वर्धनं अग्निं उप नक्षन्त) आर्य के बढाने वाले तेजस्वी परमेश्वर के समीप पहुँच रही है!
व्याख्या——- हमने आज उस प्रभु का दर्शन कर लिया है, जो गातुवित्तम है, सन्मार्गो का सर्वाधिक ज्ञाता और ज्ञापयिता है, जब कभी हम किंकर्तव्यविमूढ़ होतें है, तब माता पिता आचार्य आदि गातुवित् बनकर हमारा मार्गदर्शन करते हैं! परन्तु श्रेष्ठ मार्गों का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी तथा सदुपदेश द्वारा ज्ञान कराने वाले तो वह परमपिता परमात्मा ही है!
सांसारिक जनों द्वारा बताई हुई राह तो कभी गलत हो सकती है लेकिन उस गातुवित्तम परमेश्वर से निर्दिष्ट राह सदा सही ही निकलती है, कभी पथ भ्रष्ट करने वाली नहीं होती है! आज हमारा सौभाग्य है कि उस अनुपम पथ-प्रदर्शक का साक्षात्कार हमने कर लिया है! पर केवल दर्शन और साक्षात्कार ही पर्याप्त नहीं है, हमें अहंभाव छोड़कर अपने कृत तथा क्रियमाण समस्त कर्मों को उसे समर्पित करना होगा! अहंभाव और ब्रह्म दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं! जो सच्चे ब्रह्मदर्शी होतें है वे सदा ही अपने व्रतों कोव्रतपती अग्नि स्वरूप परमेश्वर को समर्पित किया करते हैं! हम भी उसी मार्ग का अनुसरण करेंगे! उस परमपिता की शरण में जाकर आर्य बनना है! अग्नि मय तेजस्वी प्रभु जब आर्य के हृदय में सम्यक् रुप से प्रादुर्भूत हो जाते हैं, तब वे उसे बढाते हैं, समुन्नत करते हैं! आर्य वह है जो श्रैष्ठ है उधर्वगति करने वाला है, ऋत की ओर जाने का सतत प्रयास करने वाला है! उस प्रयास में उसके हृदय में प्रकट हुए परमप्रभु सहायक होते हैं!
आर्य को बढाने और महिमा शाली बनाने वाले उस अग्नि प्रभु के समीप मेरी वाणियां निरंतर पहुँच रही है, रम रहीं हैं, उसे रिझा रही है, उससे बव पा रही है! हे प्रभु! तुम्हारे दर्शन की झांकी पाकर मैं तुमपर मुग्ध हो गया हूँ, तुम सदा मुझे दर्शन देते रहो, मेरी भक्ति रस-भीनी वाणियो से रीझ रीझ कर मुझ आर्य को समृद्ध महिमान्वित और महान बनाते रहो! मन्त्र का भाव है कि-परम प्रभु हमारी वाणियो द्वारा हमें श्रेष्ठ मार्ग दिखाते रहें!
सुमन भल्ला