जीवात्मा का धर्म जन्म मरण के चक्कर में पुण्य कर्म और पाप कर्म की वासनाओं से आच्छादित है
जीवात्मा का धर्म जन्म मरण के चक्कर में पुण्य कर्म और पाप कर्म की वासनाओं से आच्छादित है
मंत्र :- (अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम्! स सध्रीची:स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्त:)
ऋग्वेद १०/१७७/३
व्याख्या :-मैं इन्द्रियों के स्वामी अविनश्वर,नित्य शरीर में आने और जाने के मार्गो से कर्म फल भोगता हुआ जीवात्मा को देखता हूँ, वह पुण्य और पाप कर्म की वासनाओं से आच्छादित हुआ लोक लोकांतरो एवं विभिन्न योनियो में आता जाता रहता है!
आत्मा के लिए चार बातें कहीं १ आत्मा को अनिपद्यमान अर्थात अविनाशी, नित्य माना है! आत्मा जब शरीर धारण करता है तब जीव संज्ञा होती है!
२ आत्मा गोपाल अर्थात इन्द्रियों का रक्षक,स्वामी है! पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रिया और मन ये सब आत्मा के सहयोगी हैं, इन्हीं के द्वारा आत्मा विषयों का
ज्ञानदीप प्राप्त करता है, ये इन्द्रियाँ जड़ है परन्तु आत्मा के सानिध्य में चेतनवत कार्य करतीं हैं! मन, बुद्धि चित्त, अहंकार आंतरिक इन्द्रियाँ मानी गई है! पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रिया, पांच प्राण, मन और बुद्धि इन सत्रह तत्वों का संघात सूक्ष्म शरीर कहलाता है प्रलय काल, को छोड़कर इस सूक्ष्म शरीर से आत्मा आवेष्टित रहता है!
३ योगी और परमात्मा ही जीवों के गमनागमन को जानते हैं आत्मा जब शरीर को छोडता है तो सूक्ष्म शरीर के साथ उदान प्राण इसे शरीर के किसी द्वार से निकाल कर ले जाता है, इसके जाने की तीन गतियाँ है, जो जीव दान पुण्य शुभ कर्म करता है वह पितृ यान के मार्ग से चन्द्र लोक, सुख देने वाले लोक को पाता है! विषय वासना में फसे हुए अधम मार्ग से जातें हैं, जिन्होंने योगसाधना एवं देवयान का मार्ग चुना है वे मुक्त होकर मूर्धा, उध्धर्व के द्वार से जातें हैं, वे मुक्ति के आन्नद को भोगते है और जो पितृ यान, देवयान के मार्ग से पृथक पशु जीवन सामान्य जीवन जीते हुए जायस्व,म्रियस्व, बार बार जीते और मरते है!
जब पाप पुण्य बराबर हो, तो साधारण मनुष्य जन्म मिलता है, पाप का प्रतिशत अधिक हो तो पशु जन्म और जब पुण्य कर्म अधिक हो तो देव, अर्थात विद्वान का शरीर मिलता है!
४ जो कर्म किया जाता है, वह संस्कार बनते हैं, व्यक्ति जैसे संकल्प करता है वैसे ही कर्म करता है, जैसे कर्म करता है वैसे फल पाता है! इसलिए क्रतुमय:पुरुष:) कहा गया है जब कामनाएँ समाप्त हो जाती है, तो जीव मुक्त हो जाता है!
अर्थात शरीर से किये पापो का फल शरीर को ही भोगना पड़ता है, जो गुण इन जीवों की देह में अधिकता से वर्तमान है वह गुण जीव को अपने सदृश कर लेता है, तमोगुण का लक्षण मुख्यता काम वासना, रजोगुण का लक्षण अर्थ संग्रह की इच्छा और सतोगुण का लक्षण धर्म सेवा करना है!
मन्त्र का आदेश है सतोगुण को धारण करके आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करना!
सुमन भल्ला