वह सोम प्रभु मानव के हृदय के अंदर तीन पवित्रताओं (विचार, वचन और कर्म) को स्थापित करता है!
वह सोम प्रभु मानव के हृदय के अंदर तीन पवित्रताओं (विचार, वचन और कर्म) को स्थापित करता है!
मंत्र :– (ऋतस्य गोपा न दभाय सुक्रतस्य, त्री ष पवित्रा हृद्यन्तरा दधे!विद्वान्त्स विश्वा भुवनाभि पश्य त्यवा जुष्टान् विध्यति कर्ते अव्रतान्) ऋग्वेद ९! ७३! ८
पदार्थ एवं अन्वय :-
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(ऋतस्य गोपा सुक्रतु:दभाय न) सत्य का रक्षक शुभ कर्मों वाला सोम प्रभु हिंसा या उपेक्षा किये जाने योग्य नहीं है (स हृदिअन्त:त्री पवित्रा आ दधे) वह हृदय के अंदर तीन पवित्रताओं विचार, वचन कर्म की पवित्रता को स्थापित करता है! (विद्वान स विश्वा भुवनाभि पश्यति)विद्वान वह समस्त भूतों को देखता है! (अजुष्टान् अव्रतान् कर्ते विध्यति) अप्रिय व्रतहीनो कोअन्धकूप में धकेलता है!
व्याख्या——– सोम प्रभु ऋत का रक्षक और अनृत का घर्षक है! जहाँ भी वह सत्य को पाता है, उसे प्रश्रय देता है! वह सुक्रतु है, शुभ प्रज्ञानो,शुभ विचारों, शुभ संकल्पों और शुभ कर्मों से युक्त है! और अपने सम्पर्क में आने वाले मानवों को वैसे ही बनाना चाहता है! परन्तु मानव को सत्य पथ का पथिक तथा सुक्रतु वह तभी बना सकता है, जब मानव उसकी शरण में आये,उसे आत्मसमर्पण करे, उसे अपने हृदय मंदिर में उपास्य देव के रुप में प्रतिष्ठित करें! यदि मानव जीवन में उसकी हिंसा या उपेक्षा ही करता रहेगा, तो उससे मिलने वाली सत्य और शुभ क्रतु की प्रेरणा से वह वंचित ही रहेगा! अतः वह सोम प्रभु पावनकर्ता किसी से भी उपेक्षणीय नहीं है!
सोम प्रभु जब अपने उपासक को पवित्र करना चाहता है तब उसके हृदय में तीन पवित्रताओं को स्थापित कर देता है! वे तीन है- विचार की, वाणी की, कर्म की पवित्रता! मनुष्य के विचार ही वाणी और कर्म के रुप में प्रतिफलित हुआ करते हैं, अतः वाणी और कर्मों को पवित्र बनाने के लिए सर्वप्रथम विचारों की पवित्रता आवश्यक है! यदि किसी मनुष्य के विचार अपवित्र है, मन में वह पाप का चिंतन करता है, तो वाणी और कर्म से पाप न भी करें, तो भी वेद शास्त्र उसे पापी कहता है! अतः प्रभु सबसे प्रथम अपने कृपापात्र मनुष्य के मन को पवित्र करता है, फिर उस पवित्रता को क्रमशः वाणी और कर्म में भी प्रतिमूर्त कर देता है! सोम प्रभु विद्वान हैं वह प्रत्येक प्राणी की गतिविधियों को सूक्ष्मता के साथ देखता है, उसकी आंखों से कुछ भी छिपा नहीं है, वह अपने विवेक चक्षु से साधु और असाधु की पहचान कर ही लेता है! साधुओं को सत्कर्म में प्रोत्साहित करता है! जो व्रतहीन है, किसी भी शुभ कर्म के संकल्प से रहित है, अत एव जो दुर्वृत्त, अप्रिय, असेव्य है, उन्हें दुर्गति के अंधकूप में धकेलता है, दण्डित करता है! मन्त्र का भाव है कि–हम पवमान सोम को अपने जीवन की पतवार सौंप कर मन, वचन, कर्म से पवित्र बनने का प्रयास करें, प्रभु के कृपा पात्र बन जाये!
सुमन भल्ला