प्रभु के ही समर्पित होकर भक्ति से ओत प्रोत गीत गाओ!
प्रभु के ही समर्पित होकर भक्ति से ओत प्रोत गीत गाओ!
मंत्र :– (प्र मंहिष्ठाय गायत , ऋताव्ने बहते शुक्रशोचिषे! उपस्तुतासो अग्नये!!)
ऋग्वेद ८! १०३! ८!
पदार्थ एवं अन्वय:–
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(उपस्तुतासो मंहिष्ठाय ऋताव्ने बृहते शुक्रशोचिषे अग्नये प्र गायत)
हे मनुष्यों! तुम सबसे बडे़ दानी, सत्यमय महान पवित्र ज्योति वाले अग्रणी परमेश्वर के लिए प्रकृष्ट रुप से गान करो!
व्याख्या——- आओ हे मित्रों! सब मिलकर प्रभु के गीत गायें! परस्पर मिलकर भक्ति गान की स्वर लहरी उठाने से, तरंगित होकर भक्ति भाव से उस परम देव को श्रद्धा की भेंट समर्पित करने से वातावरण में जो शुचिता, पवित्रता, दिव्यनांद का गुंजन होता है, उसमें कोटि कोटि मानवों के मनो को प्रभावित करने की शक्ति रहती है! अत: आओ भाव भीनी वैदिक गीतिओ से अग्नि रुप तेजस्वी प्रभु की अर्चना वन्दना करो! उपस्तुत बनकर, प्रशंसित जीवन वाले होकर, उसके चरणों में भक्ति प्रसूनो की अञ्जलि अर्पित करो!
वह प्रभु मंहिष्ठ है सबसे बड़ा दानी है! तुम जो कुछ मांगोगे उससे अधिक तुम्हें मिलेगा!उससे तुम्हें सद्गुणों का प्रसाद मिलेगा, दिव्य आनन्द मिलेगा! वह प्रभु ऋतावा है, सत्य ज्ञान और सत्य आचरण वाला है, वह तुम्हें सत्य ज्ञान और सत्य आचरण का उपहार देगा! वह वृहत है, महान है, सर्वातिशायिनी गगनचुंबीनि महत्ता का अधिपति है! वह शुक्र शोचि:है, पवित्र ज्योति वाला है! उसकी ज्योति की किरण जिसके भी मानस पटल पर पड़ जाती है, उसकी सब कालिमा एवं मलिनता को नष्ट कर उसके अंदर असीम निर्मलता एवं पवित्रता की आभा को उत्पन्न कर देती है! वह प्रभु अग्नि है, अग्नि के समान पाप ताप को भस्म करने वाला है! अग्रणी है, पथप्रदर्शक नेता है!
आओ मिलकर हम भी उपस्तुत हो, अपने विद्यादि गुणों के कारण प्रशंसा और कीर्ति अर्जित कर चुके हो, अत:स्वभावतः प्रभु भक्ति में हमारे साथ मिलकर बैठने में तुम आनन्द अनुभव करोगे!
मन्त्र का भाव है कि-सब मिलकर समवेत स्वर में भक्ति रुपी गीतों से उस इन्द्र प्रभु की महिमा को मुखरित करें!
सुमन भल्ला