हे मेरे आत्मन्! वेदों की वाणी को सुनकर यज्ञ रचा, अपनी सात्विक कमाई में से कुछ दान भी कर!
हे मेरे आत्मन्! वेदों की वाणी को सुनकर यज्ञ रचा, अपनी सात्विक कमाई में से कुछ दान भी कर!
मंत्र :– (न त्वा शतं चन ह्तो, राधो दितसन्तमामिनन्! यत् पुनानो मखस्यसे!)
पदार्थ एवं अन्वय :–
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हे आत्मन्! (राध: दित्सन्तं त्वा शतं चन ह्रुत:न आमिनन्) धन को दान करना चाहते हुए तुझे सौ भी कुटिल वृत्तियाँ व कुटिल जन हिंसित अर्थात मार्ग च्युत न कर पाये! (यत् पुनान:मखस्यसे) जब स्वयं को पवित्र करता हुआ तू यज्ञ रचाता है!
व्याख्या——— हे पवमान सोम! हे स्वयं को, तथा मन, बुद्धि को पवित्र करने वाले सात्विक वृत्ति जीवात्मन्!जब तू परोपकार यज्ञ रचाता है और अपना धन किन्हीं सत्पात्र व्यक्तियों को या संस्थाओं को दान देने का संकल्प करता है! तब बहुत सी कुटिल स्वार्थ वृत्तियाँ और बहुत से कुटिल मनुष्य तेरे उस दान व्रत की हिंसा करना चाहते हैं! और तुझे दान के मार्ग से विचलित करने का प्रयत्न करते हैं! स्वार्थ वृत्ति कहती है कि तुम हजार, लाख रुपया अन्यों को दान कर रहे हो, तो क्या स्वयं भूखे मरना चाहते हो? देखो सब अपनी सम्पत्ति बढ़ा रहे हैं जो सहस्त्रपति है वह लखपति बनना चाहता है, लखपति करोड़ पति बन रहा है! क्या दान का ठेका तुमने लिया है! क्या तुम्हारे ही भाग्य में लिखा है कि तुम स्वयं मोटा सोटा पहनों, रुखा खाओ और झोपड़ी जैसे मकानों में रहो! और दूसरे पर धन लुटाओ! पहले अपनी अपने कुटुबं की स्थिति सुधारो फिर अन्यों की सुध लेना! हे आत्मन्! तू उस स्वार्थ वाणी को मत सुन! तुझे दान करने के लिए उद्यत देखकर कयी स्वार्थी परिचित मनुष्य भी आकर मिथ्या ही आलोचना करते हैं! कि तुम जिस संस्था को दान करने जा रहे हो, उसकी आन्तरिक अवस्था को भी जानते हो? तुम्हारा दान सब उन्हीं के पेट में जायेगा! हे आत्मन्! तू उन कुटिल स्वार्थी जनों के कुटिल परामर्श पर ध्यान मत दे! सौ प्रकार की स्वार्थ भावनाएँ और सौ स्वार्थी जन भी तुझे तेरे दान के संकल्प से विचलित नहीं कर सकें!
हे आत्मन्! तू वेद शास्ञो की वाणी सुन, जो तूझे दान के लिए प्रेरित कर रही है! तू अपनी कमाई में से प्रतिदिन या प्रतिमास, कुछ निश्चित प्रतिशत दान खाते में डाल और उसे लोक कल्याण में व्यय कर! दान से दक्षिणा पाने वाले का हित तो होता ही है, उससे भी अधिक हित और मंगल दाता का होता है! यह वैदिक संस्कृति की भावना है! इसके विपरीत (अकेला भोग करने वाला मनुष्य पाप ही भोग करता है! मन्त्र का भाव है कि- हे आत्मन्! तू दानशीलता के गुण को अपना कर शुभ कार्य यज्ञ कर!
सुमन भल्ला