हे प्रभु! तुम हमें अपराधों, पापों, दुर्गुणों से बचाओ, रक्षा करो!
हे प्रभु! तुम हमें अपराधों, पापों, दुर्गुणों से बचाओ, रक्षा करो!
मंत्र :- (देवान् वा यच्चकृमा कच्चिदाग:, सखायं वा सदमिज्जास्पतिं वा!
इयं धीर्भूया अवयानमेषां, द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्!!
ऋग्वेद १! १८५! ८!
व्याख्या :-
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यद्यपि हम मानव प्रभु सृष्टि में सर्वोत्कृष्ट प्राणी कहलाते हैं, तो भी हमारे मे अनेक दुर्बलताये है! हम सदा किसी न किसी के प्रति कुछ अपराध करते रहते हैं! कभी राष्ट्र के देव जनो के प्रति, विद्वान पुरुषों एवं नारियों के प्रति अपराध करते है कि_उनके अध्ययन अध्यापन में विघ्न डालते हैं, उनके सार्वजनिक उपदेशो में अव्यवस्था उत्पन्न करते हैं! उन्हें अपमानित करते एवं किसी प्रकार से हानि पहुंचाने का प्रयास करते हैं!
कभी हम मित्र के प्रति सौहार्द नहीं रखते आवश्यकता के समय उनकी सहायता नहीं करते हैं, उनसे विश्वासघात, द्रोह करते हैं, उनके उपकार का बदला अपकार से देते हैं! कभी हम दम्पति के प्रति भी अपराध करते हैं, उन पर असत्य दोषारोपण कर पति_पत्नी के प्रेम में दरार उत्पन्न करते हैं! उनमें कलह का हेतु बनकर स्वयं आनन्द लेते हैं! जहाँ उन्हें मार्ग दर्शन चाहिए वहाँ हम पथभ्रष्ट करते हैं! इस प्रकार हम माता पिता, पुत्र, अतिथि, क्रेता, ऋणदाता सभी के प्रति हम अपराध करते रहते हैं! जिसके प्रति, हम अपराध करते हैं उसकी तो हानि होती ही है, हम अपराधियों को भी इसका दुष्फल भोगना पड़ता है! और हम एक सामाजिक संकट को उत्पन्न करने का कारण बनते हैं!
आज से ही हम इन अपराधों और पापों को छोडने का संकल्प व्रत लेते हैं! और साथ ही यह दृढ़ निश्चय करते हैं कि_भविष्य में अपराध नही करेंगे, और जो अपराध कर चुके हैं, उसके लिए सम्बद्ध व्यक्तियों से क्षमा, याचना करेंगे!
हमारी यह (धी) हमारा यह (संकल्प) और (निश्चय) हमें अपराधों से मुक्त करने में सहायक सिद्ध होगा!
हे सूर्य और पृथिवी! जैसे तुम अपराध मुक्त होकर ईश्वरीय नियमों के अनुसार अपने अपने व्रत का पालन कर रहे हो, वैसे ही मै भी करु! हे सूर्य! तुम्हारे आदर्श पर चलकर मैं उज्जवल, निरपराध एवं निष्कलंक बनूँ! हे पृथिवी! तुमसे संदेश लेकर मै सबसे यथायोग्य प्रीति का व्यवहार करु!
मन्त्र का भाव है _हे प्रभु! हमे सदा अपराध और पाप करने से बचाओं!
सुमन भल्ला