हम उस पूर्ण प्रज्ञ सर्वज्ञ प्रभु की पूजा करें प्रभु के साथ अपना सम्बन्ध जोडे! और सदा उस प्रभु के चरणों में अपना अर्पण कर दें!
हम उस पूर्ण प्रज्ञ सर्वज्ञ प्रभु की पूजा करें प्रभु के साथ अपना सम्बन्ध जोडे! और सदा उस प्रभु के चरणों में अपना अर्पण कर दें!
(ईडिष्वा हि प्रतीव्यांऽयजस्व जातवेदसम्! चरिष्णुधूममगृभीतशोचिषम्!) साम १०३-७
व्याख्या जीव कितना भी प्रयास करें वह अपने को काम क्रोधादि के विजय में असमर्थ पाता है! अतः इस मंत्र में कहते हैं कि हि प्रतीव्यम् निश्चय से कामादि प्रतिकूल शत्रुओं के प्रति जाने वाले अर्थात उन पर आक्रमण करने वाले प्रभु की ही स्तुति करें! वे प्रभु स्मर हर हैं- इन कामादि का तेरे लिए हरण करने वाले है! हे जीव! तू जातवेदसम् यजस्व उस सर्वज्ञ प्रभु की ही पूजा कर! उसी की भांति सर्वज्ञ बनने का प्रयास कर! जितना जितना तेरा ज्ञान बढता जायेगा उतना उतना तू इन वासनाओं से उपर उठता जायेगा!
वह प्रभु चरिष्णुधूमम् यजस्व क्रिया के स्वभाव वाले और धूम सब बुराईयों को दूर करने वाले है, उस प्रभु के साथ अपना सम्पर्क स्थिर रखने वाला बन! उसकी भांति क्रियाशील बन! आलस्य के साथ वासनाओं का साहचर्य है! प्रभु का सम्पर्क तूझे शक्ति प्रवाह से शक्तिवान बना देगा और अनथक रुप से क्रिया करने वाला तू कभी इन वासनाओं का शिकार नहीं होगा! वे प्रभु अगृभीतशोचिषम् सदा अनाक्रान्त ज्योति वाले है! इनकी दीप्ति मलिनता से ग्रस्त नहीं होती है! वे सर्वदा शुचि व शुचि – निर्मल है! हे जीव! तू भी निर्मल प्रभु की भांति यजस्व अपना दान अर्पण कर दे! तू भी उसी की भांति निर्मल बन जायेगा!
देवपूजा, सङ्गतिकरण, और दान समर्पण में ही यज्ञ निहित है! यज्ञ करने वाले जीव का जीवन यज्ञिय (पवित्र) हो जायेगा! और वह सचमुच वैश्विक व्यश्व का संतान अत्यंत उत्तम इन्द्रियों वाला होगा! इसका मन काम क्रोधादि भावनाओं से दूर होने के कारण सबके प्रति प्रेम वाला होकर विश्वव्यापक असंकुचित होगा और इस मंत्र का ऋषि विश्वमना: बनेगा! मंत्र का भाव है कि- हम उस सर्वव्यापी सर्वज्ञ प्रभु की पूजा करें, उसके साथ अपना सम्बन्ध जोडे सदा पवित्र उस प्रभु के चरणों में अपना अर्पण कर दें!