मैं आज चारों ओर के उल्लासमय वातावरण को देखकर अत्यंत प्रसन्न हूँ!
मैं आज चारों ओर के उल्लासमय वातावरण को देखकर अत्यंत प्रसन्न हूँ!
मंत्र :–(इयं मे नाभिरिह मे सधस्थम्, इमे मे देवा अयमस्मि सर्व:!
द्विजा अह प्रथमजा ऋतस्य, इदं धेनुरदुहज्जायमाना!)
ऋग्वेद १०! ६१! १९!
पदार्थ एवं अन्वय :–
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(इयं मे नाभिरिह मे सधस्थ ) यह पृथिवी मेरी नाभि है इसमें मेरा स्थिति स्थान है! (अयं सर्व: अस्मि) मैं सर्व रुप हूँ! (द्विजा अह ऋतस्य प्रथमजा:) ब्राह्मण निश्चय ही सत्य ज्ञान के श्रेष्ठ प्रचारक है! (जायमाना धेनु: इदं अदुहत्) उत्पन्न होती हुई विद्यारुपिणी कामधेनु इस ज्ञान रुप दूध को दे रही है!
व्याख्या——- मै आज अपनी स्थिति को और चारों ओर के वातावरण को देखकर अत्यंत प्रसन्न हूँ! यह पृथिवी मेरी माँ है, यह मेरी नाभि है, नाभि के समान मुझ शिशु को अपने से बांधने वाली है! यह माता मुझे क्या नही देती? मुझे अन्न, फल, रस, औषधि, रजत, हिरण्य, हीरे, मोती सब कुछ देकर मेरा पालन करती है! इसमें मेरा सधस्थ है, मेरा स्थिति स्थान है, मेरी गोद है! इसी की गोद में हम पले है, खेले कूदे, बढे है! इसी की गोद में हमने घर बसाये है! ये जो चारों ओर देव दिखाई दे रहे हैं, ये सब मेरे है! ये सूर्य, चन्द्र, तारें, समुद्र, पर्वत नदियाँ सब मेरे हैं ! समाज के यह व्रतनिष्ठ तपस्वी, गुरुजन उपदेशक साधु संयासी आदि सब मेरे देव है, ये मेरी सहायता के लिए तत्पर है! मै सर्व हूँ, सबका केन्द्र बिंदु हूँ, सर्वोपरि हूँ, सर्वशक्ति का भण्डार हूँ सर्वरुप हूँ, सर्वमय हूँ! मेरे अंदर सब देव स्थित है, वायु देव प्राण होकर नासिका में प्रविष्ट हैं, अग्नि देव वाणी बनकर मुख में प्रविष्ट है, सूर्य देव चक्षु बनकर नेत्रों में प्रविष्ट हैं, दिशाएँ श्रवण शक्ति होकर कानों में प्रविष्ट हैं, औषधि- वनस्पतियाँ लोम होकर त्वचा में प्रविष्ट हैं, चन्द्रमा मन होकर हृदय में प्रविष्ट है! द्विजगण सत्य ज्ञान के श्रेष्ठ प्रचारक हो रहें हैं! उन्होंने विद्यारुपिणी कामधेनु को उत्पन्न किया है, जो सहस्त्र धाराओं में ज्ञानरस रुप दूध को दे रही है! इस कामधेनु के अमृत तुल्य पर का पान कर सब पृथिवी माता के पुत्र ज्ञानी और कर्तव्य पालक हो गयें है!
हे पृथिवी माता! हे द्विजगण! हे कामधेनु! तुम सदैव मुझे अपने लाभों को प्रदान करते रहो! मन्त्र का भाव है कि–मेरा जीवन इस उल्लासमय वातावरण में प्रभु द्वारा प्रदत्त लाभ प्राप्त होतें रहे!
सुमन भल्ला