पूर्णिका
सुंदर सृजन है सृष्टि का, सुनहरा है स्वरूप।
दिखती कहीं पर छांव है, कहीं पर दिखती धूप।।
ऐसा विहंगम दृश्य है, स्वर्णमयी दिखे श्रृंगार।
ठंडी-ठंडी पुरवाई चले, उठती हैं लहरें अनूप।।
अथाह समुद्र सामने, फिर भी प्यासे रहते कंठ।
खारा पानी भरे सागर से, बेहतर होते हैं कूप।।
जाल उठाकर हाथ में ,जब करने चले शिकार।
कभी फंसती मीन जाल में, कभी पानी में जाती छूप।।
ढलता सूरज कर रहा, अठखेलियांँ देखो आज।
इंदु दिख रहा लहरों पर, उसका कैसा प्रतिरुप।।
पूर्णिका कार ✒️डॉ इंदु जैन ‘इंदू’
इंदौर (म.प्र.)