मुफ़्त की रेवड़ी बनाम जनहित
(अजय दीक्षित)
मुफ़्त का चंदन घिस रघुनंदन की तर्ज पर जनाधार विहीन राजनेताओं द्वारा मुफ्त की सौगात बांटने की राजनीति पर अब नकेल कसने की तैयारी है । इस मामले में पिछले दिनों शीर्ष अदालत की सख्त टिप्पणी और चुनाव आयोग की जवाबदेही तय करने की कोशिशों के बाद आयोग ने मुफ्त के प्रलोभनों को मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट के दायरे में लाने की कवायद शुरू की है । दरअसल, यह मामला अभी शीर्ष अदालत में लंबित है। अगस्त माह में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन ने इस मामले को नई पीठ को भेज दिया था । इससे पहले प्रधानमंत्री ने भी मुफ्त की राजनीति को देश के विकास में बाधक बताया था । दरअसल, कोर्ट द्वारा इस अपसंस्कृति को गम्भीरता से लेने के बाद सार्वजनिक विमर्श में शामिल मुद्दा जोर पकड़ रहा है । देश की आर्थिक नियमन से जुड़ी संस्थाएं भी चेताती रही हैं कि मुफ्त की राजनीति से राज्यों की अर्थव्यवस्था पर घातक प्रतिकूल असर पड़ता रहा है । क्या मजाक है कि पहले मुफ़्त की राजनीति को परवान चढ़ाया जाता है और फिर केन्द्र सरकार की संस्थाओं व बैंक से ऋण लेकर राज्य पर कर्ज का बोझ बढ़ाया जाता है । विडम्बना यही है कि देश में रेवड़ी संस्कृति पर लगाम लगाने के लिये कोई कारगर कानून नहीं है । इस बाबत शीर्ष अदालत में चुनाव आयोग ने लाचारगी जतायी थी । तभी कोर्ट ने लॉलीपोप संस्कृति पर लगाम लगाने के लिये मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट को प्रभावी बनाने को कहा । कोर्ट ने आयोग को याद दिलाया कि संविधान के अनुच्छेद 324 के अन्तर्गत उसे चुनाव संचालन के लिये कारगर नियम बनाने का अधिकार है । अब इसी कड़ी में चुनाव आयोग ने आचार संहिता में संशोधन की बात कही है । आयोग ने राजनीतिक दलों से कहा है कि वे अपने चुनावी घोषणा पत्र में उल्लेख करें कि जो वायदे वे कर रहे हैं, उन पर कितना खर्च आयेगा ? उसके लिये वित्तीय संसाधन कहां से जुटाएंगे ? आयोग ने इस बाबत 19 अक्टूबर तक जवाब मांगा है । साथ ही पूछा है राजनीतिक दल स्पष्ट करें कि उनकी मुफ़्त की घोषणाओं से किस वर्ग को लाभ होगा ? दरअसल, आधारहीन राजनेता मुफ़्त की राजनीति के जरिये सफलता का शार्टकट तलाश रहे हैं । उन्हें लगता है । प्रलोभन की राजनीति से जनता उनके सुनहरे सपनों में खोकर उन्हें कुर्सी पर बैठा देगी । दरअसल, दक्षिण भारत से शुरू हुआ मुफ़्त देने का रोग पूरे देश पर लग गया है । विडम्बना यही है कि राजनीतिक दल आम जनता को स्थायी रोजगार देने वाली रचनात्मक विकास की योजनाएं बनाने और ढांचागत सुविधाओं को विस्तार देने के बजाय सब्जबाग दिखाने लगते हैं । सवाल है कि राजनेता पार्टी फंड व व्यक्तिगत संसाधनों से क्यों नहीं अपने मुफ़्त के वायदों को पूरा करते ? सरकारी धन से होने वाले खर्च का अन्तिम बोझ भी देश के करदाताओं पर ही पड़ता है । देश में कई बीमारू राज्य इस हालात की बानगी दर्शाते हैं । दीर्घकालीन व स्थायी विकास के बजाय प्रलोभन की राजनीति ने अंतत: जीवन स्तर में अपेक्षित सुधार को पलीता ही लगाया है । जैसा कि जाहिर था राजनीतिक दलों की तरफ से विरोध के स्वर उभरने लगे हैं । राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों को नियंत्रित करने के भी आरोप लगाए जा रहे हैं । कुर्सी के लिये प्रलोभन के हथकण्डे अपनाकर अपनी नैय्या पार लगाने वाले नेताओं की कारगुजारी पर नकेल लगाने का वक्त आ गया है । जिसको लेकर सरकार को भी सख्त रवैया अपनाना चाहिये । बहरहाल, चुनाव आयोग की यह पहल स्वागत योग्य है। कोर्ट एवं चुनाव आयोग के बाद केन्द्र सरकार को भी इस दिशा में गम्भीर पहल करनी चाहिये । राजनीतिक दल भी पार्टी हितों के बजाय राष्ट्रीय सरोकारों को तरजीह दें । साथ ही देश के मतदाताओं को भी जागरूक करने के लिये मुहिम चलायी जानी चाहिये कि वे राज्य की अर्थव्यवस्था के हित में प्रलोभनों की राजनीति को सिरे से खारिज करें । दरअसल, एक चिन्ता यह भी है कि निश्चित परिभाषा न होने से रेवड़ी संस्कृति व कल्याण कार्यक्रमों में अन्तर करना भी कठिन होता है । बहरहाल यदि इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों में सहमति बनती तो स्वच्छ लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को बल मिलेगा ।