सब ज्ञानों और कर्मो पदेश के साथ उपयोगी देव जनो के हितार्थ वाग्-रुपा गौ को अल्प बुद्धि मनुष्य वध नकरें
सब ज्ञानों और कर्मो पदेश के साथ उपयोगी देव जनो के हितार्थ वाग्-रुपा गौ को अल्प बुद्धि मनुष्य वध नकरें
मंत्र :– (वचो्विदं वाचमुदीरयन्ती, विश्वाभिर्धीभिरुपतिष्ठमानाम्
देवीं देवेभ्य: पर्येयुषीं गाम्, आ माऽवृक्त मत्यो दभ्रचेता:
ऋग्वेद ८! १०१! १६
पदार्थ एवंअन्वय :-
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(वचो्विदं वाचम उदीरयन्ती विश्वभि:धीभि:)
शास्त्र वचन का ज्ञान कराने वाली, उपदेश करने वाली सब कर्मों और ज्ञान के साथ उपस्थित होने वाली (देवेभ्य:पर्येयुषीं देवींगां दभ्रचेता:मर्त्य:मा आ वृक्त)
देव जनो के हितार्थ पहुचाने वाली दिव्य वाग्-रुपी गौ को अल्प बुद्धि मनुष्य मत वध करें!
व्याख्या——- मनुष्य को चाहिए कि वह नासमझी से कभी गौ-घात न कर बैठे! जैसे गौ का वध अनुचित है वैसे ही वाणी रुपिणी गौ का वध भी अनुचित है! आचार्य की, ब्राह्मण की, संमित्रो की , अन्तरात्मा की वाणी एवं मनुष्य की अपनी वाक् शक्ति वध अर्थात अपेक्षा करने योग्य नहीं है! इसका मानव को आदर एवं सदुपयोग करना चाहिए! वह वाग रुपी गौ वचो्विदं होती है! शास्त्र वचनों का ज्ञान कराती है, वही चारो वेदो का, हतिहास, तर्कशास्त्र, नीति शास्त्र, सभी विद्याओं का ज्ञान कराती है, यदि वाणी न होती तो मनुष्य को धर्म का ज्ञान न होता, न अधर्म का, न सत्य का, न अनृत का, न साधु, न असाधु का न हृदयानुकूल का न हृदय- प्रतिकूल का!
जो इस वाग् – रुपा गौ का वध करता है, ईश्वरीय अन्तर्वाणी की उपेक्षा करता है वेद वाणी की निंदा करता है, संतों की वाणी का निरादर करता है, गुरु वाणी का अपमान करता है! शास्त्र वाणी का उपहास करता है!, मित्र की वाणी को अनसुना करता है! लिखित वाङमय का विनाश करता है! वह मानों गौ घात ही करता है! जैसे गाय अमृतमय दूध प्रदान कर शरीर का पोषण करती है, वैसे ही वाणी भी ज्ञान रुपी दूध देकर आत्मा को परिपुष्ट करती है, अतः हे मनुष्य! तू ऐसी परमोपयोगिनी दिव्य वाग्-रुपी वाणी गाय का हनन मत कर अपितु इसके अमृतमय पयस् का पान कर तृप्ति लाभ कर!
मन्त्र का भाव है कि-गौरुप वाणी की रक्षा करो, वेदों का स्वाध्याय करो!
सुमन भल्ला