इस मंदिर में आरती की ज्योत जलाने के लिए कभी दिया सलाई या अन्य माध्यम को प्रयोग नहीं होता
मथुरा, ब्रज की चौरासी कोस परिक्रम पथ पर स्थित काली मंदिर में होने वाली आरती, श्रृद्धालुओं की आस्था के साथ कौतूहल का भी केन्द्र बनती है, क्योंकि इस मंदिर में आरती की ज्योत जलाने के लिए कभी दिया सलाई या अन्य माध्यम को प्रयोग नहीं होता है।
पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक मंदिर में सैकड़ों वर्षों से अनवरत प्रज्वलित हो रहा देवी का धूना ही आरती की ज्योत जलाने का माध्यम बनता है।
मथुरा में खेलन बिहारी मन्दिर से कूछ दूरी पर स्थित काली मंदिर के महंत नागरीदास बाबा ने गुरुवार को बताया कि संतों के आश्रम या मंदिर में हवन की प्रज्वलित अग्नि को धूना कहा जाता है। वैसे भी संतो द्वारा जहां तक संभव होता है हवन की अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए माचिश का प्रयोग न करके अरण्य मंथन से अग्नि प्रज्वलित की जाती है। अरण्य मंथन वह क्रिया है जिसमें दो सूखी लकड़ियों को रगड़कर अग्नि प्रज्वलित की जाती है।
उन्होंने बताया कि यहां की देवी स्वयं प्राकट्य हैं तथा अति प्राचीन हैं। उनका कहना था कि जिस प्रकार यहां पर श्याम तमाल और विशालतम वटवृक्ष श्यामाश्याम के रूप में मौजूद हैं, उससे ऐसा लगता है कि श्यामसुन्दर नंदबाबा और मां यशोदा को तीर्थ कराने के लिए इसी मार्ग से आए थे। इतिहास साक्षी है कि जब नंदबाबा और मां यशोदा ने श्यामसुन्दर से तीर्थाटन कराने के लिए कहा तो श्यामसुन्दर ने उनकी आयु को देखकर सभी तीर्थों को ब्रज की चौरासी कोस परिक्रमा में प्रकट कर दिया था और प्रयागराज को आदेश दिया था कि वह चातुर्मास में सभी तीर्थों को लेकर ब्रज में रहेंगे।
उनका दावा है कि वह स्वयं देवी के चमत्कारों को जिस प्रकार अनुभव कर चुके हैं उससे यह कह सकते हैं कि नन्दबाबा और मां यशोदा ने भी यहां स्थित काली मां का पूजन अवश्य किया होगा। शेरगढ़ कस्बे से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर पीरपुर गांव में सुरम्य वातावरण में स्थित देवी के चमत्कार का एक उदाहरण देते हुए नागरीदास बाबा ने बताया कि कोरोना काल में जब पूरे देश में लाॅकडाउन लगा था, तब भी इस मन्दिर में नित्य चार घंटे का हवन उनके द्वारा उसी प्रकार जारी रखा गया जिस प्रकार वर्ष पर्यन्त चलता है। वह मानते हैं कि इसके परिणाम स्वरूप ही आसपास के गांव से कोरोना प्रवेश नहीं कर सका।
उन्होंने बताया कि शमशान की आग बुझ जाती है, मगर मां भगवती का धूना नहीं बुझता है। उन्होंने बताया कि उनके कई भक्तों ने इस नैसर्गिक वातावरण में कंक्रीट का महल खड़ा करने का प्रस्ताव कई बार दिया, किंतु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि जब किसी आश्रम में कंक्रीट का महल बनाया जाता है तो देव आराधना से ध्यान भटक जाता है। देवी के सामने वे नित्य तीन तरफ से बंद गर्भगृह में चार घंटे का अनुष्ठान हवन के रूप में जब करने पर वह देवी मां की अनुभूति प्राप्त करते हैं।
बाबा ने बताया कि मथुरा जनपद को दक्षिण पीठ के नाम से जाना जाता है। यहां की दक्षिणमुखी काली यानी शनि की बहिन मां कालका, शमशान की देवी, भगवान शंकर की अर्धांगिनी, इतनी तेजोमय हैं कि काम और क्रोध पर नियंत्रण न करनेवाला व्यक्ति मां के सामने टिक नही पाता है। तपस्वी संत ने बताया कि इस बार की नवरात्रि 75 वर्ष बाद जनकल्याण के लिए आई हैं। इसमें जिस कामना के लिए अनुष्ठान किया जाएगा सफल होगा। इस वर्ष नवरात्रि का पूजन और व्रत करने पर रोगनाश होना तय है, बशर्ते प्रार्थना पूर्ण श्रद्धा भाव से की जाये।
उनका कहना है कि मनुष्य के हर अंग में देव का वास होता है। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो अपने सत्कर्मों से ईश्वर की अनुभूति कर सकता है। उन्होंने कहा कि विद्या वही है जो सही तरीके से पढ़ ली जाये। ज्ञान वही है जो सही तरीके से परख लिया जाय और पूजा वही है जो लग जाय यानी देवी स्वीकार कर लें।