विकट हाल में कमान
खडग़े इंदिरा गांधी के समाजवादी दौर से लेकर मनमोहन सिंह के नव-उदारवादी दौर तक कांग्रेस के साथ रहे हैं। अब पार्टी के सामने एक नए दौर के उद्घाटन की चुनौती है। क्या खडग़े इसे संयोजित करने में कोई योगदान कर पाएंगे?
मल्लिकार्जुन खडग़े के राजनीतिक अनुभव और योग्यता पर तो कोई प्रश्न खड़ा नहीं किया जा सकता। लेकिन जिस मुश्किल वक्त में उन्होंने कांग्रेस की कमान संभाली है, उसके बीच यह प्रश्न जरूर मौजूद है कि आखिर इस पार्टी को उनसे कितनी आस जोडऩी चाहिए। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने भारत की राजनीति के व्याकरण और संदर्भ बिंदु को बदल दिया है। इससे हिंदू मानस के एक बड़े हिस्से पर आरएसएस की सोच और राजनीतिक व्यवस्था पर भाजपा सरकार का लगभग वर्चस्व बन गया है। कांग्रेस के लिए अच्छी बात यह है कि उसके नेता राहुल गांधी ने इस स्थिति की समझ रखने के ठोस संकेत हाल के वर्षों में दिए हैँ। इसीलिए उन्होंने परंपरागत तरीकों से सियासत करने के बजाय ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का कठिन और तपस्या भरा रास्ता चुना है। यह भी अच्छी बात है कि कांग्रेस के नेता इस यात्रा से तुरंत अपनी पार्टी के पुनरुद्धार की उम्मीद नहीं जोड़े हुए हैँ। बल्कि वे कहते हैं कि यह लंबा सफर है।
आशा है कि खडग़े भी इस हकीकत से परिचित होंगे। उन्हें यह अहसास भी होगा कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ राहुल गांधी के नैतिक और राजनीतिक कद को लगातार ऊंचा बना रही है। इससे बिना किसी पद पर रहे भी वे ही पार्टी के सर्वोच्च नेता की हैसियत में रहेंगे। खडग़े के सामने इन हकीकतों के बीच अपनी ऐसी भूमिका बनाने की चुनौती है, जिससे वे तमाम सीमाओं और समस्याओं के बावजूद अपनी छाप छोड़ सकेँ। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने भाजपा के वर्चस्व के बीच बने गतिरोध को एक हद तक तोड़ा है। इसके बावजूद यह यात्रा अभी देश के सामने ऐसा एजेंडा या सपना रखने में सफल नहीं हुई है, जिससे लोग उत्साहित होकर कांग्रेस को भविष्य के विकल्प के रूप में देख पाएं। इसी बिंदु पर खडग़े की महत्त्वपूर्ण भूमिका बनती है। खडग़े इंदिरा गांधी के समाजवादी दौर से लेकर मनमोहन सिंह के नव-उदारवादी दौर तक कांग्रेस के साथ रहे हैं। अब पार्टी के सामने एक नए दौर के उद्घाटन की चुनौती है। तो प्रश्न है कि क्या खडग़े इसे संयोजित करने में कोई योगदान कर पाएंगे?